[६८] लपटात हो अर्थ भ्रमर मै मोगरा नायक मे मेरो कंठ हेम कहे सोनजुहीं नाहीं है ( नाइक सो जो तुम हीय में राष सो मैं नाहीं हैं ) जा संग दिन बीतै रात में रहे कुमुदनी कमोदनी संग जाहु नायक जाकों कुमुद चढो ताको संग जाहु नायक ता केसरी को रंग करो सेवती तुम को संतापदेनहारी है नायक पच्छ सेवा करणहार ती सुकिया तुमै ताप दाता है केतकी के अंग संगी हो नायक केतिकन के तुम अंग संग रहत (रहे) ताते तुम्हार जोत बदलत है कृस होइ गई है (कै) हाइ समुझ के विरह पीर पहार देष के सूर के प्रभु कौन मुद्रा कर रहे हैं देषो या पद में कृस तातें रोग संचारी लच्छन । तनगद ब्याधा कहाई अरु रंग बदले ते जान गई ताते ज्ञान अरु मरन नाहीं केहू कवि ने बरनौ कुमुदनी दिन में मुदित होत यामें याही ते परकिया मरण चेष्टा जताई मुद्रा अलंकार लच्छन । दोहा—मुद्रा प्रस्तुत पद विषै, औरे अर्थ प्रकास । ठाढी जलजामुत कर लीने। दधि मुत सुत बाहनहित सजनी भष विचार बित दीने ॥ को जानै केहि कारन प्यारी सो लष तुरत उठानें । चपला औ बराह रस आषर आद देष झपटानें ॥ तदगुन देष सबै मिल सजनी मनही मन मुसु- कानी। सूरस्याम को लगी बोलावन आयु सयानप मानी ॥ ७२ ॥ उक्ति अग्यातजोबना की (कै) हे सषी आज में जलजा सीप सुत मुक्ता कर में लीन्हे ठाढी रही दधिसुत कमल ताको सुत ब्रह्मा ताको बाहन हंस (ताको) भष बिचार कै को जाने कौन कारण सो देष उठि गयो चपला बाराह कोल रस आद बरन ते चकोर देषतहु झपटत अर्थ सहाथ केरंग ते मोती लाल होय गयो (तामें हंस अंगार जान चलो गयो) चकोर चुनबे को आयो
पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/६९
दिखावट