। ७५ । बहुत सुप पावत हैं जेहि को लाभ है सो यह देष कृष्ण बूझत है सो ग्वालिन तू काहे न गई तानें गूढोत्तर ग्वालन दयो कै मोहि अकेली घर रापन हेत छाड गयो सो सुनि बिहारी रहि गये या पद में गूढोत्तर अलंकार देवरत भावाधुन है लच्छन । दोहा-गूढोत्तर कछु भाव ते, उत्तर दीनो सोई। __भावाधुन सो देवरत, देव विषै रति भोइ ॥ १ ॥४०॥ विप्र जी पावन पुन्य 'हमारे । जो जजमान जानि कह मो कह आपु इहाँ पगु धारे। एक बार जो प्रथम सुनाई लगनकुंडली सोई। पुनहीं मोहि सुना- वहु सुन कर कहन लगे सुष भोई ॥ संबन मास षष्ट बसु तिथि है रबि तें चौथो बार । पुन्न पछ औ बेद नषत है हरपन जोग उदार ॥ दती लगन में है सिवभूषन सी तन को सुषकारी । केहरि बेद रास नै मूरत सेस भार सब लैहै । बान ससी सुत है पुत्री के मदन बहुत उपजैहै ॥ सास्त्र सुक्र तुल के रवि सुत ते बैरी हरता जोग। मुनि बस तिय बस करै भूमिसुत भागवान में
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