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उर्दू और आज़ाद


हरण मौलवी साहब ने अपनी किताब में दिये हैं। जिस उर्दू ने संस्कृत के गणनातीत शब्दों की दुर्गति कर डाली उसके पक्षपाती यदि कहें कि अगर फ़ारसी, अरबी का कोई शब्द, जो हिन्दी में चलित है, उसमें लिखा जाय तो अपने मूल उच्चारण के अनुसार ही लिखा जाय, तो समझदार आदमी यही कहेंगे कि भाषा-तत्व का उसे कुछ भी ज्ञान नहीं। जो फारसी अरबी जानता है वही ऐसे शब्दों को, मूल भाषा के उच्चारण के अनुसार, ठीक टीक लिख सकता है; दूसरों के लिए यह बात सम्भव नहीं, अन्य भाषा के शब्द बोलचाल में आने के कारण अपने मूल रूप से बहुधा कुछ न कुछ गिर ही जाते हैं। इस दशा में, उन शब्दों के लिए विदेशी भाषाओं के कोष का हवाला देना निरी अन्यायपूर्ण और अश्रद्धेय बात है। अन्य भाषाओं के शब्द जब किसी भाषा में आते हैं तब वे जिस रूप में उस भाषा में लिखे जाने लगते हैं वही रूप उनका हो जाता है । उर्दू में संस्कृत, फारसी, अरबी और तुर्की के जो शब्द, बिगड़े हुए रूप में प्रचलित हैं उन्हें अशुद्ध ठहराने की शक्ति किसीमें नहीं। ठीक यही बात हिन्दी भाषा में व्यवहृत विदेशी शब्दों के लिए कही जा सकती है।

मुहाविंरे के विषय में "आबे-हयात” की राय सुनिए। उसके पृष्ठ ३०-३१ में लिखा है---

"बाज़ अशखास यह भी कहते हैं कि खाली भाषा में कुछ मज़ा नहीं। उर्दू ख़्वाह मख़्वाह तबीयत को भली मालूम होती है। मगर मेरी अक़ल दोनों बातों में हैरान है। क्योंकि