पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३३
पठानी सिक्कों पर नागरी

पर मुइज़्ज़ुद्दीन ग़ज़नी का शासक हुआ। तीन वर्ष बाद, ६०२ में, जिस मुहम्मद बिन साम के पुरखे ग़ज़नी से भाग कर भारत में आ छिपे थे, उसी भारत को जिसने छल-छद्मपूर्वक आत्मसात् किया और देश जय करने में छल ही जिसका महा साधन और बल था वही मुहम्मद गद्दी पाने के तीन ही वर्ष बाद अपने ही शिविर में जङ्गली ग़क्करों से मारा गया।

इसी मुहम्मद से लेकर इब्राहीम लोदी तक, पठानों ही के विजय-क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर मुगलमहीप बाबर द्वारा उनके पतन तक की राजमुद्राओं पर नागरी अक्षर छपे हुए हैं। उन्हीं में से कुछ का वर्णन यहां पर किया जाता है। पठानों के बाद मुग़लों के समय में जब हिन्दी को जगह उर्दू नाम की एक नई हिन्दी का प्रचार हुआ तभी से सिक्कों पर नागरी का छपना भी बन्द हुआ।[१]

पहला बादशाह मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम (शहाबुद्दीन ग़ोरी) (११९३-१२०५ ईस्वी)


  1. मुसल्मान बादशाहों में नागरी अक्षरों का प्रचार महमूद ग़ज़नवी के समय से है। लाहौर के आस पास का देश बहुत काल तक महमूद और उसके वंशजों के अधीन था। उसने लाहौर का नाम महमूदपुर रक्खा था। वहीं से उसने अपने नाम का सिक्का चलाया था। किसी किसीका मत है कि लाहौर के पास महमूदपुर नाम का एक पृथक् शहर महमूद ने अपने नाम से बसाया था। वहीं उसके सिक्के ढाले जाते थे। इन सिकों में से एक सिक्का चांदी का है। उसका वज़न ४५ ग्रेन है। वह ४१८ हिज्री में महमूदपुर की टकसाल में ढाला गया था। उसके नीचे की ओर अरबी में महमूद का नाम और खिताब वगैरह है और ऊपर की ओर नागरी अक्षरों में है—

    अव्यक्त मेक
    मुहम्मद अवतार
    नृपति महमूद

    और उसके किनारे किनारे चारों ओर यह है—

    अव्यक्तीय डामे अयं टंकं तता महमूदपुर संवती ४१८

    एक और चांदी का ऐसा ही सिक्का मिला है जिस पर ये अक्षर है—

    अयं टंकं घटे तता जिकीयेर संवती ४१९।

    इन वाक्यों का संस्कृत शुद्ध नहीं है; परन्तु महमूद के लिए संस्कृत को आश्रयदेना ही आश्चर्य्य की बात है।