होता दिन रात जहां तेग दिव्य गुण-गान,
मन से कदापि जहां छूटता न लेग ध्यान ।
सुनते जहां है सब नित्य ही लगा के कान,
तेरी मनोहारी मृद मञ्च मुरला की तान !
सुख से सदेव नेर प्रमी जन भाग्यवान
करने जहां हैं तेरा रम्य-रूप-रस-पान ।
विनय यही है वहीं तनिक मुझे भी स्थान,
कर दे प्रदान दया करके दयानिधान !
कौन ऐसा सरसहृदय श्रोता होगा जो यह कविता सुन कर लोट-पोट न हो जाय ? भगवदभक्त तोइसे सुनकर अवश्य ही मुग्ध हो जायेंगे। अन्य रसिकों पर भी इसका असर पड़े बिना ही न रहेगा। कितनी ललिन, प्रसाद पूर्ण और कामधुर रचना है! इसमें जो भाव निहित हैं यह सुनने के साथ ही समझ में आ जाता है। यह इसकी सबसे बड़ी खूबी है।
एक और उदीयमान बुध या वृहस्पति आदि ग्रहां के सदृश नहीं, सूर्य के सदृश छायावादी कवि की कविता सुनिए। इस कविता का नाम है- "प्राया !" याद रहे, यह आश्चर्य सूचक चिह्न भी कवि का ही दिया हुआ है- ज्यों प्रदीप का अन्त हुआ त अन्धकार के संग अहा :- आगया मलयानिल सा, क्या इस तम-तरङ्ग में छिपा रहा।
+। +। +। +