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साहित्यालाप



लिया गया है वह देश केवल देखने अथवा केवल कहने के लिए देश है। उसमें सार नहीं। आत्मा-हीन शरीर प्रेत कहलाता है। देशत्वहीन देश भी प्रेत-तुल्य है। जिस शरीर में चेतना है; जिसमें नाना प्रकार के विकार अपनी अपनी सत्ता चला रहे हैं; जिसे सुख दुःख का ज्ञान है अर्थात--जो सजीव है-उसीको शरीर संज्ञा दी जा सकती है। इसी प्रकार जिस देश में देशाभिमान है, देशप्रीति है, देशभक्ति है, देशलेवा है, उसी का नाम देश है। जिसमें देशाभिमान नहीं है; जिसमें आत्मभिमान नहीं है; जिसमें रहनेवाले स्वार्थत्याग के बिलकुल ही भूल गये हैं और अपने पूजनीय पूर्वजों का आदर करना जानते ही नहीं ; जहाँ ऐक्य नहीं ; जहां प्रेम नहीं; जहां एक भाषा नहीं ; जहां एक धर्म नहीं ; वह देश चाहे जितना विस्तीर्ण हो; उसकी लोक-संख्या चाहे जितनी अधिक हो; वह देशत्व-युक्त देश कदापि नहीं कहा जा सकता। वह देशत्व-पद को त्रिकाल में भी नहीं प्राप्त कर सकता। वह चेतनाहीन शरीर के समान निश्चेष्ट, निष्क्रिय, हेय और घृणा का पात्र है।

देश को देशत्व प्राप्त होने के लिए विशेष करके दो बातें दरकार होती हैं। एक भाषा, दूसरा धर्म। अर्थात् जिस देश में सर्वत्र एक ही भाषा और एक ही धर्म प्रचलित है वहीं देश देशत्वयुक्त है। अर्थात् देश को सजीव रखने के लिए एक भाषा और एक धर्म की प्रधान आवश्यकता रहती है। इन दो बातों की सहायता से, देश में देशत्व उत्पन्न करने के लिए