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हिन्दी भाषा और उसका


जी की भाषा माध्यमिक काल के कवियों की भाषा से, क्लिष्टता में बढ़ी चढ़ी है।

इस समय हिन्दी के अनेक उत्तमोत्तम कवि हुए। परन्तु कविता ही की ओर सबका ध्यान रहा। कवियों का ध्यान कविता के सिवा और किस ओर हो सकता है ? छन्द, अलङ्कार,नायिकाभेद आदि पर भी अनेक ग्रन्थ, इसी समय, बने । भगवभ्दत्कों ने अपने अपने इष्ट देवता के गुण-गान से गर्भित अनेक पुस्तकें लिखीं। विहारीलाल ने अपने ७०० दोहों में श्रृंगार रस की पराकाष्ठा कर दी, सूरदास ने अपने पदों में भक्ति की पराकाष्ठा कर दी और भूषण ने अपनी कविता में वीर रस की पराकाष्ठा कर दी। सूर, तुलसी, बिहारी और केशव इस माध्यमिक साहित्य की आत्मा है; अन्य सहसावधि कवियों के होते हुए भी इनके बिना साहित्य-शरीर को निर्जीव ही समझना चाहिए।

जिस समय ब्रजभाषा के रूप में हिन्दी अपना आधिपत्य जमा रही थी उसी समय उसकी एक दूसरी शाखा उससे पृथक् हो गई। इस शाखा का नाम उर्दू है । उर्दू कोई भिन्न भाषा नहीं। वह भी हिन्दी ही है। उसमें चाहे कोई जितने फ़ारसी, अरबी और तुर्की के शब्द भर दे उसकी क्रियायें हिन्दी ही की नी रहती हैं; उसकी रचना हिन्दी ही के व्याकरण का अनुसरण करती है। चाहे कोई जो कुछ कहे,वली और सौदा के काव्यों में जो भाषा है, वही तुलसीदास और बिहारी लाल के भी काव्यों में है : 'मेरा बाप' के स्थान