पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/१०४

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अध्याय १३ १ जिसका होना साहित्य के इतिहास में अनिवार्य है । उसमें न तो साहित्य की परंपरागत विचार धाराओं, उनकी शैलियों आदि का ही विवेचन है और न उसमें देश, समाज, समय आदि की संस्कृतियों की ही - जिनके प्रभाव से भाषा और साहित्य प्रभावित होकर प्रगतिशील होते हैं आलोचना है ।" ५ - 'रसाल' जी ने मिश्रबंधु विनोद को 'साहित्य के इतिहास का सच्चा मार्ग" दिखाने- वाला ग्रंथ तो माना है, किंतु उसकी वास्तविक विशेषता के संबंध में निश्चित रूप से कुछ न कहकर उसकी कुछ गौण बातों का इन शब्दों में निर्देश किया है, "इस ग्रंथ में साहित्य की परंपराओं, विचार-धाराओं और रचना - शैलियों आदि पर भी सांकेतिक प्रकाश डाला गया है। रामचंद्र शुक्ल की इतिहास - पुस्तक के संबंध में भी वे इन्हीं शब्दों को दुहराते हैं । संक्षेप में 'रसाल' जी की मान्यता है कि साहित्यिक इतिहास में परंपराओं, विचार- धाराओं तथा रचना - शैलियों का विवेचन अपेक्षित है, जो उनके अनुसार मिश्रबंधु विनोद और शुक्लजी के इतिहास ग्रंथ में है । उन्होंने 'सरोज' में इस विवेचन के अभाव और देश, समाज, समय आदि की संस्कृतियों की आलोचना के न रहने की भी बात कही है । इसका अभाव 'विनोद' में भी है, किंतु शुक्लजी के ग्रंथ में अवश्य नहीं है, पर 'रसाल' जी इसका श्रेय शुक्लजी को भी नहीं देते । स्वयं' 'रसाल' जी शुक्लजी का अनुसरण करते हुए सभी कालों की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक दशा को पृष्ठभूमि के रूप में, प्रस्तुत करने की चेष्टा करते हैं, यद्यपि शुक्लजी की तरह वे, अपेक्षया अधिक विस्तृत विवरणों के बावजूद, पृष्ठभूमि तथा उस पर उभरे चित्र के अंतरसंबंध का निर्देश नहीं कर पाये हैं । सिद्धांत रूप में तो वे यहाँ तक मानते हैं, "यदि कहा जावे कि साहित्य का इतिहास पूर्णतया इतिहास पर ही निर्भर है तो भी कोई विशेष अत्युक्ति न होगी । ...यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जावे तो प्रत्येक देश एवं समाज की राज- नीतिक एवं आर्थिक दशा पर ही उसकी साहित्यिक दशा एवं प्रगति समाधारित रहती है । .... साहित्य में (जो समस्त समाज पर जनता के विचारादि का एक व्यवस्थित समूह है) उसी प्रकार की अवस्थाएँ, दशाएँ, प्रणालियाँ एवं परिवर्तन की प्रगतियाँ पाई जाती हैं, जिस प्रकार की देश के इतिहास में । इससे स्पष्ट है कि साहित्य का इतिहास पूर्णतया इतिहास का एक मुख्य अंग होकर उसी पर समाधारित सा रहता है ।"" . अपने ग्रंथ के इन प्रारंभिक उप-परिच्छेदों में आगे रसालजी' 'साहित्य और धर्मशास्त्र' शीर्षक के अंतर्गत साहित्य का धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, किंबहुना भूगोल-शास्त्र से 'गाढ़ी मैत्री', 'घनिष्ठ संबंध' या 'गहरा संबंध' प्रतिपादित करते हैं । साहित्य और धर्म के परस्पर संबंध के विषय में उनका निष्कर्ष है, "साहित्य हमारे धर्म के आधार पर स्थिर होता हुआ उसी के साथ-साथ उससे प्रभावित हो विकसित एवं परिष्कृत होता आया है ।"" साहित्य और समाज-शास्त्र के अन्योन्याश्रय संबंध का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं, "जिस सामाजिक सभ्यता की विवेचना समाज-शास्त्र करता है उसीका चित्र चित्रित करके साहित्य अपने पाठकों के सामने रखता है । और अंत में साहित्यिक इतिहास की सीमा का अधिकाधिक विस्तार करते हुए वे साहित्य और भौगोलिक परिस्थितियों के बीच आधाराधेय-संबंध-सा मान कर निर्णय देते हैं कि "प्राकृतिक दृश्यों के आलेख्य से जिस प्रकार मुख्य या मूल चित्र प्रभावित "होता है उसी प्रकार भौगोलिक परिस्थितियों से साहित्य का चित्र भी, जिसे हम इतिहास कह