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पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/४

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वक्तव्य

प्रस्तुत ग्रंथ—साहित्य का इतिहास-दर्शन—पाठकों के सम्मुख उपस्थित करते हुए मुझे हर्ष हो रहा है। परिषद् की स्थापना जिन उद्देश्यों की पूर्त्ति के लिए बिहार-सरकार ने की है, उनमें मुख्य है—साहित्य के विभिन्न अंगों को पूर्त्ति और संवर्धन के लिए अधिकारी विद्वानों से उच्चकोटि के ग्रंथों का प्रणयन कराकर उन्हें प्रकाशित करना। परिषद् अपने इसी उद्देश्य की पूर्त्ति अबतक करती आ रही है। कहना न होगा कि परिषद् अपनी अल्पावधि में अबतक पचास से अधिक ऐसे ग्रंथों को प्रकाशित कर चुकी है, जिनकी विद्वज्जनों और पत्र-पत्रिकाओं ने मुक्तकंठ से सराहना की है। यह ग्रंथ उसी श्रृंखला की एक कड़ी है। विद्वान् लेखक ने साहित्य के अछूते अंग पर इस ग्रन्थ में प्रकाश डालने की चेष्टा की है। प्रस्तुत ग्रंथ में लेखक ने न केवल भारतीय साहित्येतिहास पर विचार किया है, प्रत्युत पाश्चात्य देशों के समग्र साहित्येतिहास पर उपलब्ध तथ्य-बहुल सामग्री को मथकर, अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। लेखक ने इस ग्रन्थ के प्रणयन में अपनी गंभीर अध्ययनशीलता, निष्ठा, धैर्य और सूक्ष्मदर्शिता का जो परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है।

प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक पटना-विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागाध्यक्ष, पटना से प्रकाशित त्रैमासिक 'साहित्य' के सम्पादक, बिहार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के प्रधान मंत्री, परिषद् के सदस्य और बदरीनाथ सर्वभाषा-महाविद्यालय के प्राचार्य हैं। आपने उत्तराधिकार-सूत्र द्वारा अपने पिता से गंभीर विद्वत्ता प्राप्त की है। आपके पिता भारत-विख्यात साहित्य और दर्शन के महाविद्वान् स्वर्गीय महामहोपध्याय रामावतार शर्माजी थे।

यह ग्रंथ परिषद् की भाषण-माला के अंतर्गत प्रस्तुत हुआ है। यह भाषण पटना के साहित्य-सम्मेलन-भवन में सन् १९५७ ई॰ में, १० जनवरी को कराया गया था। परंतु, ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करने के पहले लेखक ने फिर से उस भाषण को माँजा-सँवारा है। इससे पुस्तक के प्रकाशित होने में अधिक विलंब हुआ। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि परिषद् के अन्य ग्रंथों की तरह इस ग्रंथ का भी सुधी-समाज समादर करेगा।

वसन्तोत्सव वैद्यनाथ पाण्डेय
संचालक
१८८१ शकाब्द