४० साहित्य का इतिहास दर्शन 1 मौलिकता के विषय में साधारणतः हमारी सांप्रतिक धारणा यह है कि वह परंपरा के विरुद्ध विद्रोह है, या फिर हम उसे वहाँ ढूंढते हैं जहाँ वह होती नहीं, उदाहरणार्थ कला-कृति के उपकरण मात्र में या उसके ढाँचे में । साहित्यिक सृजन के संबंध में पहले के युगों में ज्यादा समझदारी पाई जाती है - मात्र मौलिक कथा-वस्तु या वर्ण्य विषय का कलात्मक महत्त्व बहुत कम होता है, यह पहले के विद्वानों की महज मान्यता थी । जिस अर्थ में पोप ने होरेस के या डॉ० जॉनसन ने ज्यूवेनाल के व्यंग्य का अनुकरण किया था, या संस्कृत के प्रायः सभी महाकाव्य कथा-वस्तु की दृष्टि से महाभारत पर आश्रित हैं या कालिदास" और तुलसीदास प्रारंभ में ही पूर्ववर्ती कवियों का आभार स्वीकार करते हैं, उस अर्थ में अनुकरण, प्रभाव या आभार का महत्त्व प्राचीन विद्वान् मानते थे । इस प्रकार के अनेक अध्ययनों में हम साहित्यिक प्रक्रिया-विषयक गलत धारणाओं को देखते हैं। उदाहरण के लिए एलिजाबेथ युग के सानेटों पर सर सिडनी ली के जो अध्ययन" हैं उनमें उन्होंने उनकी परंपरानमारिता तो ठीक ही प्रमाणित की है, किंतु इससे उनकी कृत्रिमता और निकृष्टता नहीं सिद्ध होती, जैसा वे सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार रीति-काल के कवियों नं, रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, भले ही "संस्कृत साहित्य - शास्त्र के इतिहास की एक संक्षिप्त उद्धरणी प्रस्तुत कर दी हो, किंतु इससे रीति-कालीन कवियों के कवित्व का अपकर्ष नहीं प्रमाणित होता, जैसा हम मान बैठे हैं। परंपरा विशेष की सीमाओं में सृजन करना और उसकी शिल्प-विधि को अपनाना मनोरागों की शक्तिमत्ता तथा कलात्मक मूल्य के विरुद्ध नहीं पड़ते । इस प्रकार के अध्ययन में वास्तविक विवेचनात्मक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, जब हम तौलने और तुलना करने की स्थिति में पहुँचते हैं और हमें यह दिखाना पड़ता है कि एक कलाकार दूसरे की उपलब्धि का किस तरह उपयोग करता है। परंपरा विशेष में प्रत्येक कृति का सही-सही स्थान निर्धारण साहित्यिक इतिहास का प्रथम कर्त्तव्य है । दो या उनसे अधिक कला-कृतियों के संबंधों में अध्ययन से गुजरने पर हमारे सामने साहित्यिक इतिहास के विकास की अनेक दूसरी समस्याएँ आती हैं । कला-कृतियों की सर्व- प्रथम और सुस्पष्ट श्रेणी तो वे कृतियाँ हैं, जो किसी एक लेखक की है। इस श्रेणी के क्षेत्र में मूल्यों की योजना, एक लक्ष्य को स्थापित करना बहुत अधिक कठिन नहीं होना : हम किसी लेखक की किसी एक कृति को उसकी प्रौढ़तम कृति के रूप में निर्धारित कर ले सकते हैं, और तब इसी प्रकार विशेष की आसन्नता के दृष्टिकोण से अन्य सभी कृतियों का विश्लेषण कर सकते हैं । ऐसे अनेक प्रयत्न किये गये तो हैं, यद्यपि इनमें वास्तविक समस्या के प्रति स्पष्ट जागरूकता का अभाव ही दिखाई पड़ता है, और बहुधा इनमें लेखक के व्यक्तिगत जीवन से संबद्ध समस्याओं से उलके रह जाने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है । विकासात्मक श्रेणी का एक दूसरा प्रकार भी निर्मित हो सकता है । कला-कृतियों के गुण- विशेष को पृथक् करके और किसी आदर्श (वह अस्थायी ही क्यों न हो) की ओर उसकी उन्मुखता को प्रदर्शित कर ऐसा प्रयास किया जा सकता है । यह एक ही लेखक की विभिन्न कृतियों को विषय बना कर किया जा सकता है, जैसे क्लेमेन" ने शेक्सपियर के काव्य चित्रों के संबंध में किया है, या यह एक युग या किसी देश के समस्त साहित्य को लेकर किया जा सकता है । अँगरेजी छंदःशास्त्र और गद्य लय पर सॅट्सबेरी की जो पुस्तकें हैं, उनमें इसी
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