४२ साहित्य का इतिहास-दर्शन या कथा-वस्तु के बहिर्गमन के अध्ययन की प्रचलित पद्धति है। जहाँ तक इस पद्धति से लोक- बार्ता के अध्ययन का प्रश्न है, रूसी विद्वानों ने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है । अ २६ आधुनिकतम कलात्मक साहित्य में भी स्वरूप का विभावन कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इस क्षेत्र में जो प्रारंभिक कार्य हुए हैं, उनका एक बहुत बड़ा दोष है जैविक समानांतरता पर अत्यधिक निर्भर होना, उदाहरणार्थ ब्रुनतिर या सिमांड्स के स्वरूपविषयक इतिहास | इधर अधिक सतर्कता के साथ लिखे गये अध्ययन प्रस्तुत किये गये हैं, किंतु इनमें खतरा इस बात का रहता है कि ये प्रकार विशेष के वर्णन होकर, या पृथक् विवेचनों से असंबद्ध श्रेणी होकर रह जाते हैं नाटकों या उपन्यासों के तथाकथित अनेक इतिहासों में यह बात देखी जा सकती है । हाँ, कुछ पुस्तकें अवश्य ऐसी हैं, जो प्रकार विशेष के परिणमन की समस्या पर ही केंद्रित रही हैं । ग्रेग की पुस्तक, पैस्टोरल पोएट्री एंड पैस्टोरल ड्रामा, स्वरूप-विषयक इतिहास की प्रारंभिक पुस्तकों में उल्लेख्य है, और लेविस की ऐलेगरी आव लव परिणमन की योजना के स्पष्ट विभावन का उत्कृष्ट उदाहरण है । जर्मन भाषा में कार्ल वाइटर का जर्मन ओड का इतिहास और गुंथर मुलर का जर्मन गीत का इतिहास, ये दो पुस्तकें अत्युत्तम हैं । इन दोनों जर्मन विद्वानों ने उन समस्याओं पर सूक्ष्मता पूर्वक विचार किया है, जिन्हें उन्होंने अपने सामने रखा है । वाइटर ने उस तर्क-वृत्त को ठीक-ठीक समझा है, जो ऐसे विवेचन में अनिवार्यतः उपस्थित हो जाता है, पर उसने उससे बचने की चेष्टा नहीं की है : उसने समझा है कि इतिहासकार के लिए यह बोध होना आवश्यक है कि स्वरूप- विशेष का आवश्यक तत्त्व क्या है, और तब उसे उस स्वरूप के स्रोत तक जाना पड़ता है, जिससे उसकी परिकल्पना की युक्तियुक्तता की परख हो सके । इतिहास के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह इस अर्थ में किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँच जाय कि स्वरूप- विशेष का आगे नैरंतर्य रहेगा ही नहीं, अथवा पृथक्करण होगा ही नहीं । सम्यक् इतिहास निर्माण के लिए किसी सामयिक लक्ष्य अथवा प्रकार को ध्यान में रखना ही आवश्यक है । युग - विशेष या प्रवृत्ति विशेष के इतिहास के सामने भी ऐसी ही समस्याएँ उपस्थित होती हैं । इस संबंध में दो अतिवादी दृष्टिकोण हैं, जिनसे सहमत होना कठिन है। एक तो तत्त्ववादी दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार युग ऐसी इकाई है जिसकी प्रकृति का उद्भावन करना आवश्यक है; और दूसरा है सर्वथा भिन्न नामवादी दृष्टिकोण, जो मानता है कि कोई भी विचारणीय काल- खंड, विवरण देने के निमित्त शाब्दिक व्यपदेश मात्र है। नामवादी दृष्टिकोण मान लेता है कि युग ऐसी वस्तु पर स्वेच्छाकृत बाह्यारोपण है, जो वस्तुतः अविच्छिन्न, दिशा-रहित विपर्यस्तता है । इसका अर्थ है कि हमारे सामने एक तरफ तो निश्चित घटनाओं की असंबद्ध श्रृंखला रहती है और दूसरी तरफ विशुद्ध रूप से अंतर्निष्ठ व्यपदेश रहते हैं। यह मान लेने पर इसका कोई महत्व नहीं रह जाता कि हम किसी अंतःग्खण्ड का, अपनी नानाविध बहुरूपता में तत्त्वतः समान वास्तविकता के माध्यम से, किस सीमा पर परीक्षण करते हैं। ऐसी दशा में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं रह जाता कि युगों की जो योजना हम स्वीकृत करते हैं, वह कितनी स्वेच्छाकृत तथा कृत्रिम है । तब तो हम पत्रा के अनुसार निर्धारित शताब्दियों, दशाब्दियों या वर्षो का इतिहास, काल-विवरणात्मक प्रणाली से, लिखने लगेंगे । इसका उदाहरण आर्थर साइमन्ज का ग्रंथ, द रोमांटिक मूवमेंट इन इंग्लिश पोएट्री," है, जिसमें गृहीत आदर्श के अनुसार,
पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/५५
दिखावट