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पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/६

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भूमिका


प्रबंध (Thesis) में जो प्रतिज्ञा है, उसे निर्भ्रांत रूप में उपन्यस्त करने के बाद ही कुछ और आवश्यक बातों का उल्लेख कर रहा हूँ। प्रतिज्ञा यह है कि साहित्येतिहास भी, अन्य प्रकार के इतिहासों की तरह कुछ विशिष्ट लेखकों और उनकी कृतियों का इतिहास न होकर, युग-विशेष के लेखक-समूह की कृति-समष्टि का इतिहास ही हो सकता है। इस पर, सिद्धांत और व्यवहार दोनों में ही, ध्यान न देने के कारण साहित्यिक इतिहास ढीले सूत्र में गुँथी आलोचनाओं का रूप ग्रहण करता रहा है।

प्रबंध के सिद्धांत-भाग में, इसी कारण, प्रतिज्ञा-विशेष के पूर्वपक्ष का निरसन और उत्तर पक्ष का पुंखानुपुंख प्रतिपादन है। प्रबंध में गौण लेखकों की जो विस्तृत तालिकाएँ हैं, उनका भी यही कारण है, यह बताना अनावश्यक है।

भोज-प्रबन्ध-जैसी किसी पुस्तक को ले लीजिए, या प्राचीन कवियों के सम्बन्ध में पंडितों के बीच प्रचलित कथाएँ और किंवदन्तियाँ, काल की दृष्टि से गति और परिवर्त्तन के विभावन अनुपस्थित हैं: पाणिनि, कालिदास, वररुचि आदि समसामयिक, और उत्तर तथा दक्षिण भारत के दूरतम राज्य और उनके नरेश पड़ोसी माने जाकर वर्णित मिलेंगे। ऐसा नहीं कि प्राचीन भारत में ही साहित्येतिहास के क्षेत्र में ऐसी स्थिति है। सत्रहवीं शताब्दी के पहले योरोप में भी फ्रांस और इंगलैंड, ग्रीस और रोम की चर्चा एक साथ ही होती थी, और वर्ज़िल और ओविड, तथा होरेस और होमर समसामयिक की तरह विवेचित होते थे। भारत में हो या योरोप में, पौर्वापर्य का निश्चित या अनिश्चित ज्ञान रहते हुए भी, विभिन्न युगों के बीच के अंतरायों के प्रति विद्वानों में चेतना न थी। प्राचीन काल में यहाँ या पश्चिम में, विकास-सम्बन्धी विकास-वृत्त का जो सिद्धान्त था—अर्थात्, अनिवार्यतः अग्रगमन और फिर ह्रास होता है—वह ऐतिहासिक प्रगति के वास्तविक वैविध्य की व्याख्या नहीं कर सकता था;[] किन्तु विकास-रेखा के आधुनिक अध्ययन से भी साहित्येतिहास का निर्माण संभव नहीं हो सकता था; क्योंकि इसमें यह अनिर्निहित है कि परिपूर्णता के एक आदर्श की ओर विकास उन्मुख होता है।[] इस परवर्त्ती सिद्धान्त का परिणाम तो मुख्यतः यही होता है कि अतीत हमारी दृष्टि में अधिकाधिक उपेक्षणीय बन जाता है और एकरूप उन्नति के अतिरिक्त जो भिन्नताएँ होती हैं, वे मिट जाती हैं।

विकास का आधुनिक विभावन, जैसा वह पश्चिम में मिलता है, तभी संभव हुआ, जब स्वतंत्र, विशिष्ट, राष्ट्रीय साहित्यों का सिद्धान्त स्थापित और स्वीकृत हुआ। पृथक् राष्ट्रीय


  1. J. B. Bury, The Idea of Progress, London, १९२० ।
  2. Eduard Spranger, "Die Kultur zyklenth eorie und des problem des Kulturverfalls", Sitzlingsberich te der Preussischen Akademie der Wissenschaften, Berlin, १९२६, में; तथा Hubert Gillot, La Querelle des anciens Et des modernes