पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/८०

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अध्याय १०

मीमांसा पर अवलंबित 'उच्चतर' आलोचना से है। प्रथम महायुद्ध के बाद यह नवीकृत प्राचीन परंपरा बहुत प्रभावशाली बन गई थी।

दूसरी परंपरा है व्यक्तिगत आलोचनात्मक निबंध की, जिसमें बहुधा रुचि-वैचित्र्य का दायित्वशून्य प्रदर्शन ही देखने को मिलता है। इंग्लैंड में, कम-से-कम शास्त्रीय विद्वत्ता के क्षेत्र में, सुनियोजित चिंतन और ज्ञान के विषय में एक ऐसा अविश्वास का भाव देखा जाता है जो, दूसरे देशों की तुलना में, उसकी एक विशेषता ही है। वहाँ के शास्त्रज्ञ सूक्ष्म और जटिल समस्याओं को भरसक टाल जाना पसंद करते हैं। काव्य के संबंध में बौद्धिक मीमांसन को वे एक प्रकार का असंभवप्राय कार्य मान लेते हैं। यह बात विशेषरूप से पुरानी पीढ़ी के विद्वानों के बारे में सच है। यही कारण है कि प्रणाली-विषयक (Methodology) तात्त्विक समस्याओं के संबंध में इंग्लैंड में अत्यल्प खंडन-मंडन हुआ है। इस तथ्य के स्पष्टीकरण के लिए यह एक उदाहरण पर्याप्त होगा—एच्० डब्लू० गैरड२ ने निस्संकोच स्वीकार किया है कि 'कविता कुछ सूक्ष्म-सी चीज है या कुछ नहीं है।' इसी तरह उसका यह कथन उदाहरणीय है कि वही आलोचना उत्तम जो 'तात्त्विक प्रश्नों को लेकर कम-से-कम सर-दर्द मोल लिए बिना' लिखी जाती है। जिन विद्वानों ने साहित्यिक कृतियों की सार्थकता पर गंभीर चिंतन किया भी है, वे या तो आर्थर क्विलर क्वूश' की तरह अस्पष्ट धार्मिक रहस्यवाद के, या फिर एफ० एल० ल्यूकस४ की तरह नंदतिक प्रभाववाद के शिकार बन जाते हैं।

किंतु इनके विरुद्ध एक प्रतिक्रिया भी हुई है, जो द्विधा-विभक्त हो गई है। इनमें पहली प्रणाली है आइ० ए० रिचर्ड्स की, जो उनकी पुस्तक Principles of Literary Criticism५ में निरूपित और Practical Criticism६ में सम्यक् रूप से व्यवहृत हुई है। रिचर्ड्स मूलतः मनोवैज्ञानिक और अर्थवैज्ञानिक हैं। वे कविता के उपचारात्मक प्रभावों और पाठकों की प्रतिक्रियाओं और उनके मनोवेगों के रूप-ग्रहण में अभिरुचि रखते हैं। उनके सिद्धांत के तात्पर्य पूर्णतः प्रकृतवादात्मक और विधेयवादात्मक हैं; कभी-कभी तो वे स्नायु-विज्ञान के प्रच्छन्न कांतार की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करा कर ही संतुष्ट हो जाते हैं। यह समझ पाना कठिन है कि पाठक के ज्ञान का यह कल्पित संतुलन साहित्य के अध्ययन के लिए किस प्रकार उपयोगी सिद्ध हो सकता है, क्योंकि स्वयं रिचर्ड्स को यह स्वीकार करना पड़ा है कि ऐसी मनोदशा एककालीन हो सकती है, या किसी के अंग-संचालन से, एक चमत्कारपूर्ण उक्ति, या एक गीत से भी, उत्पन्न हो सकती है। दिक्कत यह है कि ऐसा कोई भी सिद्धांत, जो सारा भार पाठक के अपने मन के प्रभावों पर छोड़ देता है, मूल्यों की अराजकता और वंध्य अविश्वास तक ही हमें पहुँचा सकता है। रिचर्ड्स ने स्वयं ही इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद कहा है कि 'अच्छी कविता को पसंद और बुरी को नापसंद करना उतना जरूरी नहीं है, जितना इसके लिए समर्थ हो सकना कि हम उसके द्वारा अपने मन को सुव्यवस्थित कर सकें।' इसका तात्पर्य तो यह होता है कि कोई कविता हमारी क्षणिक मानसिक आवश्यकताओं के अनुसार ही अच्छी है या बुरी। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि किसी कला-कृति के बाह्य संघटन पर ध्यान न देने से अनिवार्यतः अराजकता ही हाथ लगेगी। यह सौभाग्य की बात है कि अपनी व्यावहारिक आलोचना में रिचर्ड्स प्रायशः अपने सिद्धांत की भूल जाते हैं। जहाँ तक उनकी आलोचना के व्यावहारिक पक्ष का प्रश्न है, सच तो यह है कि उन्होंने कला- कृतियों की सम्पूर्ण अर्थ-विविधता को समझा है, और दूसरों को भी प्रेरित किया है कि वे अर्थ-विश्लेषण के उनके कौशल का प्रयोग नई दिशाओं में करें।