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साहित्य का उदेश्य

अद्भुत आश्चर्यजनक घटनाएँ नही ढूँढ़ता और न अनुप्रास का अन्वे- षण करता है; किन्तु उसे उन प्रश्नों से दिलचस्पी है, जिनसे समाज या व्यक्ति प्रभावित होते हैं। उसकी उत्कृष्टता की वर्तमान कसौटी अनुभूति की वह तीव्रता है, जिससे वह हमारे भावों और विचारों में गति पैदा करता है।

नीति-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र का लक्ष्य एक ही है— केवल उप- देश की विधि मे अन्तर है । नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है, साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है । हम जीवन मे जो कुछ देखते है, या जो कुछ हम पर गुजरती है, वही अनुभव और वही चोटे कल्पना में पहुँचकर साहित्य सृजन की प्रेरणा करती हैं । कवि या साहित्यकार मे अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और ऊँचे दर्जे की होती है । जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जाग्रत हो-जो हममे सच्चा सङ्कल्प और कठिनाइयो पर विजय पाने की सच्ची दृढता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं ।

पुराने जमाने में समाज की लगाम मजहब के हाथ में थी। मनुष्य की आध्यात्मिक और नैतिक सभ्यता का आधार धार्मिक आदेश था और वह भय या प्रलोभन से काम लेता था-पुण्य-पाप के मसले उसके साधन थे।

अब साहित्य ने यह काम अपने जिम्मे ले लिया है और उसका साधन सोन्दर्य-प्रेम है । वह मनुष्य में इसी सौन्दर्य प्रेम को जगाने का यत्न करता है । ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमे सौन्दर्य की अनुभूति न हो । साहित्यकार में यह वृत्ति जितनी ही जाग्रत और सक्रिय होती है, उसकी रचना उतनी ही प्रभावमयी होती है। प्रकृति-निरीक्षण और