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साहित्य की नई प्रवृत्ति

 

जिस तरह संस्कृति के और सभी अंगों में यूरोप हमारा पथ-प्रदर्शक है, उसी तरह साहित्य में भी हम उसी के पद चिन्हों पर चलने के आदी हो गये हैं। यूरोप आजकल नग्नता की ओर जा रहा है। वही नग्नता जो उसके पहनावे में, उसके मनोंरजनों में, उसके रूप प्रदर्शन में नजर आती है, उसके साहित्य में भी व्याप्त हो रही है। वह भूला जा रहा है कि कला संयम और संकेत में है। वही बात जो संकेतों और रहस्यों में आकर कविता बन जाती है, अपने स्पष्ट या नग्न रूप में वीभत्स हो जाती है। वह नंगे चित्र और मूर्ति बनाना कला का चमत्कार समझता है। वह भूल जाता है कि वही काजल जो आँखों को शोभा प्रदान करता है, अगर मुँह पर पोत दिया जाय तो रूप को विकृत कर देता है। मिठाई उसी वक्त तक अच्छी लगती है, जब तक वह मुंह मीठा करने के लिए खाई जाय। अगर वह मुह में ठूंस दी जाय, तो हमें उससे अरुचि हो जायगी। ऊषा की लाली में जो सुहानापन है, वह सूरज के सम्पूर्ण प्रकाश में हरगिज नहीं। मगर वर्तमान साहित्य उसी खुलेपन की ओर चला जा रहा है। जिन प्रसंगों में जीवन का माधुर्य है, उन्हें स्पष्ट और नग्न रूप में दिखाकर वह उस माधुर्य को नष्ट कर रहा है। वही प्रवृत्ति जो आज युवतियों को रेल और ट्राम में बार बार आईना देखकर ओठों और गालों के धूमिल होते हुए रंग को फिर से चमका देने पर प्रेरित करती है, हमारे साहित्य में भी उन विषयों और भावों को खोलकर

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