किसी चीज़ की रचना इसलिए नहीं करते कि हमे कुछ कहना है, कोई
सन्देश देना है, जीवन के किसी नये दृष्टिकोण को दिखाना है, समाज
और व्यक्ति मे ऊँचे भावो को जगाना है अथवा हमने अपने जीवन मे
जो कुछ अनुभव किया है, उसे जनता को देना है, बल्कि केवल इसलिए
कि हमे धन कमाना है और हम बाजार मे ऐसी चाज रखना
चाहते है जो ज्यादा से ज्यादा बिक सके । जब एक बार यह
ख्याल दिल मे जम गया, तो फिर हम विचार-स्वातन्त्र्य और
भाव-स्वातन्त्र्य के नाम से ऐसी चीजे लिखते हैं, जिनके विषय मे जनता
को सदैव कुतूहल रहा है और सदैव रहेगा । ड्रामेटिस्ट और उपन्यासकार
और कवि सभी नग्न लालसा और चूमाचाटी से भरी हुई रचनाएँ करने
के लिए मैदान मे उतर आते है, और आपस मे होड-सी होने लगती है
कि कौन नई से नई चौकाने वाली बाते कह सुनाये, ऐसे-ऐसे प्रसग
उपस्थित करे कि कामुकता के छिपे हुए अड्डो मे जो व्यापार होते है वह
प्रत्येक स्त्री पुरुष के सामने आ जायें । कोई अाजाद प्रेम के नाम से,
कोई पतितो के उद्धार के नाम से, कामोद्दीपन की चेष्टा करता है, और
सयम और निग्रह को दकियानूसी कहकर मुक्त विलास का उपदेश देता
है । सत्य और असत्य की उसे परवाह नहीं होती । वह तो चौकाने वाली
और कान खड़े करने वाली बाते कहना चाहता है, ताकि जनता उसकी
कृतियों पर टूट पड़े और उसकी पुस्तके हाथो-हाथ बिक जायें । उसे गुप्त
से गुप्त प्रसंगो के चित्रण मे जरा भी संकोच या झिझक नही होती । इन्हीं
रहस्यों को खोलने मे ही शायद उसके विचार मे समाज का बेडा पार
होगा । व्रत और त्याग जैसी चीज़ की उसकी निगाह मे कुछ भी महिमा
नहीं है। नहीं, बल्कि वह व्रत, त्याग और सतीत्व को ससार के लिए
घातक समझता है। उसने वासनाओ को बेलगाम छोड़ देने में ही
मानवी जीवन का सार समझा है । हक्सले और डी० एच० लारेन्स और
डिकोबरा श्रादि, आज अग्रेजी साहित्य के चमकते हुए रत्न समझे जाते हैं,
लेकिन इनकी रचनाएँ क्या हैं ? केवल उपन्यास रूपी कामशास्त्र । जब
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