ब आशियाॅ न नशीनम जे लज्ज़ैते परवाज,
गहे बशाखे गुलम गहे बरलबे जयम ।
[अर्थात्, अगर तुझे जीवन के रहस्य की खोज है, तो वह तुझे
संघर्ष के सिवा और कहीं नहीं मिलने का— सागर मे जाकर विश्राम
करना नदी के लिए लज्जा की बात है। आनन्द पाने के लिए मैं
घोंसले मे कभी बैठता नहीं,-कभी फूलों की टहनियो पर, तो कभी
नदी-तट पर होता हूँ।]
अतः हमारे पथ मे अहवाद अथवा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है, जो हमे जड़ता, पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्ति-रूप मे उपयोगी है और न समुदाय-रूप मे ।
मुझे यह कहने मे हिचक नहीं कि मै और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ । निस्सन्देह कला का उद्देश्य सौन्दर्य-वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनन्द की कुञ्जी है; पर ऐसा काई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलु न रखता हो । आनन्द स्वतः एक उपयोगिता-युक्त वस्तु है और उपयोगिता की दृष्टि से एक ही वस्तु से हमे सुख भी होता है, और दुःख भी । आसमान पर छायी लालिमा निस्सन्देह बड़ा सुन्दर दृश्य है, परन्तु आषाढ में अगर आकाश पर वैसी लालिमा छा जाय, तो वह हमें प्रसन्नता देनेवाली नही हो सकती। उस समय तो हम आसमान पर काली-काली घटाएँ देखकर ही आनन्दित होते हैं । फूलों को देखकर हमें इसलिए आनन्द होता है कि उनसे फलों की आशा होती है । प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमे इसीलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उससे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है। प्रकृति का विधान वृद्धि और विकास है, और जिन भावो, अनुभूतियो और विचारो से हमे अनन्द मिलता है