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साहित्य का उद्देश्य


जब अॉख से अोझल भया, तडपन लगा मेरा जिया, हक्का इलाही क्या किया ऑसू चले भरलायकर ।। तू तो हमारा यार है, तुम पर हमारा प्यार है, तुझ दोस्ती बिसियार है, यक शब मिलो तुम आय कर। मेरा जो मन तुमने लिया, तुमने उठा गम को दिया, गम ने मुझे ऐसा किया जैसे पतंगा आग पर ॥ खुसरा की एक दुसरी गजल देखिये- बह गये बालम, वह गये नदियो किनार, आप पार उतर गये हम तो रहे अरदार । भाई रे मल्लाहो हम को उतारो पार, हाथ का देऊँगी मुंदरी, गल का देऊँ हार ।

मुसलमानी जमाने मे अवश्य हो हिन्दी के तीन रूप होंगे। एक नागरी लिपि मे ठेठ हिन्दी, जिसे भाषा या नागरी कहते थे, दूसरी उर्दू यानी फारसा लिपि मे लिखी हुई, फारसी से मिली हुई हिन्दी और तीसरी ब्रजभाषा । लेकिन हिन्दी-भाषा का मोजूदा सूरत मे आते-आते सदियाँ गुजर गयी । यहाँ तक कि सन् १८०३ ई० से पहले का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । सदल मिश्र की 'चन्द्रावती' का रचना-काल १८०३ माना जाता है और सदल मिश्र ही हिन्दी के आदि लेखक ठहरते है। इसके बाद लल्लूजी, सैयद इशा अल्लाह खाँ वगैरह के नाम है । इस लिहाज से हिन्दी गद्य का जीवन सवा सौ साल से ज्यादा का नहीं है, और क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सवा सौ साल पहले जिस जबान मे कोई गद्य-रचना तक न थी वह आज सारे हिन्दुस्तान की कोमी जबान बनी हुई है ? और इसमें मुसलमानो का कितना सहयोग है यह हम बता चुके है । हमे सन्देह है कि मुसलमानो का सहारा पाये बगैर हमको आज यह दरजा हासिल होता ।

जिस तरह हिन्दुओं की हिन्दी का रूप विकसित हो रहा था, उसी तरह मुसलमानो की हिन्दी का रूप भी बदलता जा रहा था। लिपि