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साहित्य का उद्देश्य


मिट जाय और पढे-बे-पढे सब अपने को एक जान,एक दिल समझे, और कौम में ताकत आवे। चूँकि उर्दू जबान अरसे से अदालती और सभ्य-समाज की भाषा रही है, इमलिए उममे हजारो फारसी और अरबी के शब्द इस तरह घुल मिल गये है कि बज देहाती भी उनका मतलब समझ जाता है। ऐसे शब्दो को अलग करके हिन्दी मे विशुद्धता लाने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, हम उसे जबान और कौम दोनो ही के साथ अन्याय समझते है। इसी तरह हिन्दी या सस्कृत या अँगरेजी के जो बिगडे हुए शब्द उदू मे मिल गये, उनको चुन-चुनकर निकालने और उनकी जगह खालिम फारसी और अरवी के शब्दो के इस्तेमाल को भी उतना ही एतराज के लायक समझते हैं। दोनो तरफ से इस अलगौझे का सबब शायद यही है कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज जनता से अलग-थलग होता जा रहा है, और उसे इसकी खबर ही नही कि जनता किस तरह अपने भावो और विचारो को अदा करती है। ऐसी जबान जिसके लिखने और समझनेवाले थोडे से पढे-लिखे लोग ही हो, मसनुई, बेजान और बोझल हो जाती है । जनता का मर्म स्पर्श करने की, उन तक अपना पैगाम पहुँचाने की, उसमे कोई शक्ति नहीं रहती। वह उस तालाब की तरह है जिसके घाट सगमरमर के बने हो जिसमे कमल खिले हों, लेकिन उसका पानी बन्द हो । क्या उस पानी मे वह मजा, वह सेहत देनेवाली ताकत, वह सफाई है जो खुली हुई धारा मे होती है ? कौम की जबान वह है जिसे कौम समझे, जिसमे कौम की आत्मा हो, जिसमें कौम के जजबात हो । अगर पढे-लिखे समाज की जबान ही कौम की जबान है तो क्यों न हम अंग्रेजी को कौम की जबान समझे क्योकि मेरा तजरबा है कि अाज पढा-लिखा समाज जिस बेतकल्लुफी से अंग्रेजी बोल सकता है, और जिस रवानी के साथ अंग्रेजी लिख सकता है, उर्दू या हिन्दी बोल या लिख नहीं सकता। बडे-बडे दफ्तरों मे और ऊँचे दायरे मे आज भी किसी को उर्दू-हिन्दी बोलने की महीनो, बरसों जरूरत नहीं होती । खानसामे और बैरे भी ऐसे रखे जाते हैं जो अंग्रेजी बोलते