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पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/२०९

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साहित्य का उद्देश्य


रूप मे राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकी और इसीलिए संयुक्त रूप मे स्वय ही उनका सयोग और मेल प्रारम्भ हो गया और दोनो का यह सम्मिलित स्वरूप उत्पन्न हो गया जिसे हम बहुत ठीक तौर पर हिन्दुस्तानी जबान कहते है। वास्तविक बात तो यह है कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय-भाषा न तो वह उर्दू ही हो सकती है जो अरबी और फारसी के अप्रचलित तथा अपरिचित शब्दो के भार से लदी रहती है और न वह हिन्दी ही हो सकती है जो सस्कृत के कठिन शब्दो से लदी हुई होती है। यदि इन दोनो भाषाप्रो के पक्षपाती और समर्थक आमने- सामने खड़े होकर अपनी साहित्यिक भाषाओ मे बात करे तो शायद एक दूसरे का कुछ भी मतलब न समझ सके । हमारी राष्ट्रीय भाषा तो वही हो सकती है जिसका आधार सर्व-सामान्य बोधगम्यता हा--जिसे सब लोग सहज मे समझ सके । वह इस बात की क्यो परवाह करने लगी कि अमुक शब्द इसलिए छोड दिया जाना चाहिए कि वह फारसी, अरबी अथवा सस्कृत का है ? वह तो केवल यह मान-दण्ड' अपने सामने रखती है कि जन-साधारण यह शब्द समझ सकते है या नहीं । और जन-साधारण मे हिन्दू, मुसलमान, पंजाबी, बगाली, महाराष्ट्र और गुजराती सभी सम्मि- लित है। यदि कोई शब्द या मुहावरा या पारिभाषिक शब्द जन साधारण में प्रचलित है तो फिर वह इस बात की परवाह नहीं करती कि वह कहाँ से निकला है और कहाँ से आया है। और यही हिन्दुस्तानी है। और जिस प्रकार अंगरेजो की भाषा अगरेजी, जापान की जापानी, ईरान की ईरानी और चीन की चीनी है, उसी प्रकार हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय भाषा को इसी तौर पर हिन्दुस्तानी कहना केवल उचित ही नहीं, बल्कि आवश्यक भी है। और अगर इस देश को हिन्दुस्तान न कहकर केवल हिन्द कहे तो इसकी भाषा को हिन्दी कह सकते है । लेकिन यहाँ की भाषा को उर्दू तो किसी प्रकार कहा ही नहीं जा सकता, जब तक हम हिन्दुस्तान को उर्दूस्तान न कहने लगें, जो अब किसी प्रकार सम्भव ही नही है। प्राचीन काल के लोग यहाँ की भाषा को हिन्दी ही कहते