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साहित्य का उदेश्य


सुन्दरता का वास है, उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होठों और कुम्हलाये हुए गालों मे सौन्दर्य का प्रवेश कहाँ ? ।

पर यह सकीर्ण दृष्टि का दोष है । अगर उसकी सौन्दर्य देखने- वाली दृष्टि में विस्तृति आ जाय तो वह देखेगा कि रँगे होंठों और कपोलों की आड़ मे अगर रूप-गर्व और निष्ठुरता छिपी है, तो इन मुर- झाये हुए होंठों और कुम्हलाये हुए गालों के ऑसुओ मे त्याग, श्रद्धा और कष्ट-सहिष्णुता है। हॉ, उसमे नफासत नहीं, दिखावा नहीं, सुकुमारता नहीं।

हमारी कला यौवन के प्रेम में पागल है और यह नही जानती कि जवानी छाती पर हाथ रखकर कविता पढने, नायिका की निष्ठुरता का रोना रोने या उसके रूप-गर्व और चोचलों पर सिर धुनने मे नहीं है। जवानी नाम है आदर्शवाद का, हिम्मत का, कठिनाई से मिलने की इच्छा का, आत्म-त्याग का । उसे तो इकबाल के साथ कहना होगा-

अज़ दस्ते जुनूने मन जिब्रील जबूँ सैदे,
यज़दॉ बकमन्द आवर ऐ हिम्मते मरदाना।


[अर्थात् मेरे उन्मत्त हाथों के लिए जिबील एक घटिया शिकार है। ऐ हिम्मते मरदाना, क्यों ने अपनी कमन्द मे तू खुदा को ही फॉस लाये ?]

अथवा

चूँ मौज साजे बजूदम जे सैल बेपरवास्त,
गुमा मबर कि दरी बहर साहिले जोयम ।

[अर्थात् तरंग की भॉति मेरे जीवन की तरी भी प्रवाह की ओर से बेपरवाह है, यह न सोचों कि इस समुद्र में मैं किनारा ढूंँढ रहा हूँ ।।]

और यह अवस्था उस समय पैदा हागी, जब हमारा सौंदर्य व्यापक हो जायगा, जब सारी सृष्टि उसकी परिधि मे आ जायगी | वह किसी विशेष श्रेणी तक ही सीमित न होगा, उसकी उड़ान के लिए केवल बाग की चहारदीवारी न होगी, किन्तु वह वायु-मण्डल होगा जो सारे भूमडल को