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सहित्य का उदेश्य


प्रश्न नहीं है, जिस पर उसमें विचार-विनिमय न होता हो । इसके विरुद्ध, हम अपनी ज्ञानसीमा को देखते है तो हमे अपने अज्ञान पर लज्जा आती है। हमने समझ रखा है कि साहित्य रचना के लिए आशुबुद्धि और तेज कलम काफी है । पर यही विचार हमारी साहित्यिक अवनति का कारण है। हमे अपने साहित्य का मान- दण्ड ऊँचा करना होगा जिसमें वह समाज की अधिक मूल्यवान् सेवा कर सके, जिसमे समाज मे उसे वह पद मिले जिसका वह अधिकारी है, जिसमें वह जीवन के प्रत्येक विभाग की आलोचना- विवेचना कर सके और हम दूसरी भाषाओं तथा साहित्यों का जुठा खाकर ही सन्तोष न करे, किन्तु खुद भी उस पूँजी को बढ़ाये ।

हमे अपनी रुचि और प्रवृत्ति के अनुकूल विषय चुन लेने चाहिए और विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना चाहिए। हम जिस आर्थिक अवस्था मे जिन्दगी बिता रहे है, उसमे यह काम कठिन अवश्य है, पर हमारा आदर्श ऊँचा रहना चाहिए । हम पहाड़ की चोटी तक न पहुँच सकेगे, तो कमर तक तो पहुँच ही जायेंगे, जो जमीन पर पड़े रहने से कहीं अच्छा है। अगर हमारा अन्तर प्रेम की ज्योति से प्रकाशित हो और सेवा का आदर्श हमारे सामने हो, तो ऐसी कोई कठिनाई नहीं जिस पर हम विजय न प्राप्त कर सके ।

जिन्हे धन-वैभव प्यारा है, साहित्य-मन्दिर में उनके लिए स्थान नहीं है । यहाँ तो उन उपासकों की आवश्यकता है, जिन्होने सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो, जिनके दिल मे दर्द की तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो । अपनी इज्जत तो अपने हाथ है । अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो मान, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि सभी हमारे पॉव चूमेगी। फिर मान-प्रतिष्ठा की चिन्ता हमे क्यों सताये ? और उसके न मिलने से हम निराश क्यो हो ? सेवा मे जो आध्यात्मिक आनन्द है, वही हमारा पुरस्कार है-हमे समाज पर अपना बड़प्पन जताने, उस पर रोब जमाने की हवस क्यों हो ? दूसरो से ज्यादा आराम

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