समझना भूल होगी कि यह हमारी कोई नयी कल्पना है । नहीं, देश के
साहित्य-सेवियों के हृदयों में सामुदायिक भावनाएँ विद्यमान है। भारत
की हर एक भाषा में इस विचार के बीज प्रकृति और परिस्थिति ने पहले
से बो रखे हैं, जगह-जगह उसके अँकुए भी निकलने लगे हैं। उसको
सींचना एव उसके लक्ष्य को पुष्ट करना हमारा उद्देश्य है।
हम साहित्यकारों में कर्मशक्ति का अभाव है। यह एक कड़वी सचाई है; पर हम उसकी ओर से ऑखे नही बन्द कर सकते। अभी तक हमने साहित्य का जो आदर्श अपने सामने रखा था, उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी, कर्माभाव ही उसका गुण था क्योकि अक- सर कर्म अपने साथ पक्षपात और सकीर्णता को भी लाता है। अगर कोई आदमी धार्मिक होकर अपनी धार्मिकता पर गर्व करे, तो इससे कहीं अच्छा है कि वह धार्मिक न होकर 'खाओ पियो मोज करो', का कायल हो। ऐसा स्वच्छन्दचारी तो ईश्वर की दया का अधिकारी हो भी सकता है; पर धार्मिकता का अभिमान रखने वाले के लिए इसकी संभावना नहीं ।
जो हो, जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियॉ गा-गाकर सुलाना, केवल ऑसू बहाकर जी हलका करना था, तब तक उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था जिसका गम दूसरे खाते थे । मगर हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते । हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमे उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो-जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नही क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है ।†
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†लखनऊ मे होने वाले प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधि- वेशन मे सभापति आसन से दिया गया भाषण ।