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साहित्य का उद्देश्य

है और साहित्यसेवियों के लिये आदर्श है, मगर आपने पूर्वजों का बोझा मस्तक पर लादने की जो बात कही, वह हमारी समझ में न आई। हमारा ख्याल है कि हम पूर्वजों का बोझ जरूरत से ज्यादा लादे हुए हैं, और उसके बोझ के नीचे दबे जा रहे है। हम अतीत में रहने के इतने आदी हो गये हैं कि वर्तमान और भविष्य की जैसे हमें चिन्ता ही नहीं रही। यूरोप और पश्चिमी जग इसीलिए हमारी उपेक्षा करता है कि वह हमें पाच हजार साल पहले के जन्तु समझता है, जिसके लिए अजायबघरों और पिंजरापोलो में ही स्थान है। वह हमारे भोजपत्रों और ताम्र लेखों को लाद लादकर इसलिए नहीं ले जाता कि उनसे ज्ञान का अर्जन करे, बल्कि इसलिए कि उन्हे अपने संग्रहालयों मे सुरक्षित रखकर अपने विजय गर्व को तुष्टि दे, उसी तरह जैसे पुराने जमाने में विजय की लूट के साथ नर नारियों की भी लूट होती थी और जुलूसों में उनका प्रदर्शन किया जाता था। प्राचीन अगर हमें आदर्श और मार्ग देता है, तो उसके साथ ही रूढ़ियाँ और अन्ध विश्वास भी देता है। चुनाचे आज राम और कृष्ण राम लीला और रास लीला की वस्तु बनकर रह गये हैं और बुद्ध और महावीर ईश्वर बना दिये गये हैं। यह प्राचीन का भार नहीं तो और क्या है कि आज भी असंख्य प्राणी, जिसमें अच्छे खासे पढे़ लिखे आदमियों की संख्या है, नदियों में नहाकर अपना मन शुद्ध कर लिया करते हैं? प्राचीन, उन राष्ट्रों और जातियों के लिए गर्व की वस्तु होगी और होनी चाहिए जो अपने पूर्वजों के पुरुषार्थ और उनकी साधनाओं से आज मालामाल हो रहे हैं। जिस जाति को पूर्वजों से पराजय का अपमान और रूढियों का तौक ही विरासत में मिला, वे प्राचीन के नाम को क्यों रोयें। ऐसे दर्शन को क्या हम लेकर चाटें, जिसने हमारे पूर्वजों को इतना अकर्मण्य बना दिया कि जब बख्तियार खिलजी ने बिहार विजय किया, तो पता चला कि सारा नगर और किला एक विशाल वाचनालय था। विद्वान लोग मजे से राज्य का आश्रय पाते थे और अपनी कुटिया मे बैठे हुए प्राचीन शास्त्रो मे डूबे रहते थे।