मि॰ ग्लिन शा ने जापानी साहित्य के अनेक ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किये हैं। आपने हिसाब लगाया है कि जापान इस समय संसार में सबसे अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाला देश है। जापान के बाद सोवियट रूस, जर्मनी, फ्रान्स, इंगलैंड, पोलैण्ड और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का क्रम से नम्बर आता है। जापान की आबादी अमेरिका की आधी से ज्यादा नहीं पर हर साल वह अमेरिका से दुगुनी किताबें छापता है।
इस समय जापानी साहित्य की रुचि राष्ट्रीयता की ओर विशेष रूप से हो रही है। इतिहास, साहित्य, धर्म, युद्धनीति आदि सभी अंगों में यही प्रवृत्ति दिखाई देती है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि बौद्ध धर्म विषय की ओर यकायक लोगों मे बड़ी दिलचस्पी हो गई है। हालांकि यह किसी धार्मिक अनुराग का नतीजा नहीं, केवल राष्ट्र आन्दोलन का ही एक भाग है।
गत वर्ष जापान में दस हजार से ज्यादा पुस्तकें निकलीं। इनमें से २७०० शिक्षा विषयक, २५०० साहित्य, १९०० अर्थनीति, २०० पाठ्य, और १००० गृह प्रबन्ध विषय की थीं। शिक्षा विषयक पुस्तकों की संख्या ही सबसे ज़्यादा थी। इससे मालूम होता है जापान अपने राष्ट्र के निर्माण में कितना उद्योगशील है; क्योंकि शिक्षा ही राष्ट्र की जड़ है। गृह प्रबन्ध की ओर भी उनका ध्यान कितना ज्यादा है। भारत में तो इस विषय की पुस्तकें निकलती ही नहीं, और निकलती भी हैं, तो बिकती नहीं। इस विषय में भी कुछ नई बात कही जा सकती है, कुछ नई अनुभूतियाँ संग्रह की जा सकती हैं-यह शायद हम सम्भव नहीं समझते। जो घर सम्पन्न कहलाते
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