को एक महान् पद के लिए तैयार कर रहा है, जो अदालतों मे बहस करने या कुरसी पर बैठकर मुकदमे का फैसला करने से कहीं ऊँचा है। उसके लिये केवल डिग्रियाँ और ऊँची शिक्षा काफी नहीं । चित्त की साधना, संयम, सौन्दर्य, तत्व का ज्ञान, इसकी कहीं ज्यादा जरूरत है। साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए । भावो का परिमार्जन भी उतना ही वाछनीय है जब तक हमारे साहित्य-सेवी इस आदर्श नक न पहॅचेगे तब तक हमारे साहित्य से मंगल की आशा नही की जा सकती। अमर साहित्य के निर्माता विलासी प्रवृत्ति के मनुष्य नहीं थे। वाल्मीकि और व्यास दोनो तपस्वी थे । सूर और तुलसी भी विलासिता के उपासक न थे । कबीर भी तपस्वी ही थे। हमारा साहित्य अगर अाज उन्नति नहीं करता तो इसका कारण यह है कि हमने साहित्य-रचना के लिये कोई तैयारी नही की। दो-चार नुस्खे याद करके हकीम बन बैठे। साहित्य का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है और हमारी ईश्वर से यही याचना है कि हममे सच्चे साहित्य सेवी उत्पन्न हो, सच्चे तपस्वी, सच्चे आत्मज्ञानी।
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