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साहित्य का उद्देश्य

इसके साथ यह भी याद रखना चाहिए कि बहुधा एक लेखक की कलम से जो चीज प्रोपागेंडा होकर निकलती है, वही दूसरे लेखक की कलम से सद्साहित्य बन जाती है। बहुत कुछ लेखक के व्यक्तित्व पर मुनहसर है। हम जो कुछ लिखते हैं, यदि उसमें रहते भी हैं, तो हमारा शुष्क विचार भी अपने अन्दर आत्म प्रकाश का सन्देश रखता है और पाठक को उसमें आनन्द की प्राप्ति होती है। वह श्रद्धा जो हममें है, मानो अपना कुछ अंश हमारे लेखों में भी डाल देती है। एक ऐसा लेखक विश्व बन्धुत्व की दुहाई देता हो, पर तुच्छ स्वार्थ के लिये लड़ने पर कमर कस लेता हो, कभी अपने ऊँचे आदर्श की सत्यता से हमें प्रभावित नहीं कर सकता। उसकी रचना में तो विश्व बन्धुत्व की गन्ध आते ही हम ऊब जाते हैं, हमें उसमें कृत्रिमता की गन्ध आती है। और पाठक सब कुछ क्षमा कर सकता है, लेखक में बनावट या दिखावा या प्रशंसा की लालसा को क्षमा नहीं कर सकता। हाँ, अगर उसे लेखक में कुछ श्रद्धा है, तो वह उसके दर्शन, विचार, उपदेश, शिक्षा, सभी असाहित्यिक प्रसंगों में सौन्दर्य का आभास पाता है। अतएव बहुत कुछ लेखक के व्यक्तित्व पर निर्भर है। लेकिन हम लेखक से परिचित हों या न हों, अगर वह सौन्दर्य की सृष्टि कर सकता है, तो हम उसकी रचना में आनन्द प्राप्त करने से अपने को रोक नहीं सकते। साहित्य का आधार भावों का सौन्दर्य है, इससे परे जो कुछ है वह साहित्य नहीं कहा जा सकता।