उसी भॉति उपन्यास मे भी न होना चाहिए।कुछ लोग तो बातचीत या
शक्ल-सूरत से विशेषता उसन्न कर देते हैं, लेकिन असली अन्तर तो
वह है, जो चरित्रो मे हो ।
उपन्यास मे वार्तालाप जितना अधिक हो और लेखक की कलम से जितना ही कम लिखा जाय, उतना ही उपन्यास सुन्दर होगा। वार्ता- लाप केवल रस्मी नहीं होना चाहिए। प्रत्येक वाक्य को-जो किसी चरित्र के मुॅह से निकले-उसके मनोभावो और चरित्र पर कुछ न कुछ प्रकाश डालना चाहिए। बातचीत का स्वाभाविक, परिस्थितियों के अनुकूल, सरल और सूक्ष्म होना जरूरी है । हमारे उपन्यासो मे अक्सर बातचीत भी उसी शैली मे करायी जाती है मानो लेखक खुद लिख रहा हो । शिक्षित-समाज की भाषा तो सर्वत्र एक है, हॉ, भिन्न-भिन्न जातियों की जबान पर उसका रूप कुछ न कुछ बदल जाता है । बंगाली, मारवाडी और ऐंग्लो-इण्डियन भी कभी-कभी बहुत शुद्ध हिन्दी बोलते पाये जाते है। लेकिन यह अपवाद है, नियम नहीं। पर ग्रामीण बातचीत हमे दुबिधा मे डाल देती है । बिहार की ग्रामीण भाषा शायद दिल्ली के आस-पास का आदमी समझ ही न सकेगा।
वास्तव मे कोई रचना रच यता के मनोभाव का, उसके चरित्र का,
उसके जीवनादर्श का, उसके दर्शन का आईना होती है । जिसके हृदय
में देश की लगन है उसके चरित्र, घटनावली और परिस्थितियों सभी
उसी रग मे रॅगी हुई नजर आयेगी । लहरी आनन्दी लेखकों के चरित्रो
मे भी अधिकाश चरित्र ऐसे ही होगे जिन्हे जगत्-गति नहीं व्यापती । वे
जासूसी, तिलिस्मी चीजे लिखा करते हैं । अगर लेखक आशावादी है
तो उसकी रचना में आशावादिता छलकती रहेगी, अगर वह शोकवादी
है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी, वह अपने चरित्रो को जिन्दादिल न
बना सकेगा। 'आजाद-कथा' को उठा लीजिये, तुरन्त मालूम हो जायगा
कि लेखक हॅसने-हँसानेवाला जीव है जो जीवन को गम्भीर विचार के