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साहित्य में बुद्धिवाद

 

साहित्य सम्मेलन की साहित्य परिषद् में श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने इस विषय पर एक सारगर्भित भाषण दिया, जिसमें विचार करने की बहुत कुछ सामग्री है। उसमें अधिकांश जो कुछ कहा गया है, उससे तो किसी को इनकार न होगा। जब हमें कदम-कदम पर बुद्धि की जरूरत पड़ती है, और बुद्धि को ताक पर रखकर हम एक कदम भी आगे नहीं रख सकते, तो साहित्य क्योंकर इसकी उपेक्षा कर सकता है। लेकिन जीवन के हरेक व्यापार को अगर बुद्धिवाद की ऐनक लगाकर ही देखें, तो शायद जीवन दूभर हो जाय। भावुकता को सीधे रास्ते पर रखने के लिए बुद्धि की नितान्त आवश्यकता है, नहीं तो आदमी संकटों में पड़ जाय, इसी तरह बुद्धि पर भी मनोभावों का नियन्त्रण रहना जरूरी है, नहीं तो आदमी जानकर हो जाय, बल्कि राक्षस हो जाय। बुद्धिवाद हरेक चीज को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है। बहुत ठीक। अगर साहित्य का जीवन में कोई उपयोग न हो तो वह व्यर्थ की चीज़ है। वह उपयोग इसके सिवा क्या हो सकता है, कि वह जीवन को ज्यादा सुखी, ज्यादा सफल बनाए, जीवन की समस्याओं को सुलझाने में मदद दे या जैनेन्द्र जी के शब्दों में प्रकृति और जीवन में सामन्जस्य उत्पन्न करे। कोरी भावुकता यह सामन्जस्य नहीं पैदा कर सकती, तो शायद कोरा बुद्धिवाद भी नहीं कर सकता। दोनों का समन्वय होने से ही वह एकता पैदा हो सकती है। सच पूछिए, तो कला और साहित्य बुद्धिवाद के लिए उपयुक्त ही नहीं। साहित्य तो भावुकता की वस्तु है, बुद्धिवाद को यहाँ

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