तो एक दूसरा उदाहरण लीजिए। एक स्त्री को कुछ लम्पटो ने घेर
लिया है-समष्टिवाद भी लम्पटताका अन्त नहीं कर सकता-उसी
वक्त एक मुमाफिर उबर से आ निकलता है । भावुकता कहती है-
भगा दो इन बदमाशा का ओर इस देवी का उद्धार करो। बुद्धिवाद
कहेगा, मै अकेला इन पाँच आदमियो का क्या सामना करूंगा।
व्यर्थ मे मेरो जान भी जायेगी । लम्पट लोग स्त्री की हत्या न करेगे लेकिन
मेरा तो खून ही पी जायेगे। यहाँ भावुकता ही मानवता है। बुद्धिवाद
कायरता है, दुर्बलता है। प्रेम के आडम्बरो को निकाल दीजिए, तो वह
केवल सन्तानोत्पत्ति की इच्छा है। मगर शायद बाबा आदम ने भी बीबी
हौवा से सीधे सीधे यह न कहा होगा-मै तुमसे सन्तानोत्पत्ति करना
चाहता हूँ, इसलिए तुम मेरे पास आओ! उन्हे भी कुछ-न-कुछ नाजबरदारी
करनी पड़ी होगी। अगर ब्रजभाषा वालो का रति-वर्णन घृणास्पद
है, तो बुद्धिवाद का यह लक्कड़तोड अनुरोध भी नगी बर्बरता है।
फिर उस बुद्धिवाद को लिखकर ही क्या कीजिए जब कोई उसे पढे ही
नहीं। अभी किसी बुद्धिवादी साहित्यिक डिक्टेटर का राज तो है नहीं,
कि वह छायावाद को दफा १२४ के अन्दर ले ले । श्राप जनता तक
तभी पहुंच सकते है, जब आप उनके मनोभावो को स्पर्श कर सके।
आपके नाटक या कहानी मे अगर भावुकता के लिए रस नहीं है, केवल
मस्तिष्क के लिए सूखा बुद्धिवाद है, तो नाटककार और नटो के सिवा
हॉल मे कोई दर्शक न होगा। हँसना और रोना भी तो भावुकता ही
है । बुद्धि क्यो रोए ? रोने से मुर्दा जी न उठेगा । और हसे भी क्यो ?
जो चीज़ हाथ आ गई है वह हँसने से ज्यादा कीमती न हो जायगो ।
ऐसा सूखा साहित्य अगर अमृत भी हो तो पड़ा पडा भाप बनकर उड़
जायेगा । साहित्य में जीवन-बल देने की क्षमता होनी चाहिये । यहाँ तक
तो हम आपके साथ है, लेकिन बुद्धिवाद ही यह जीवन-बल दे सकता
है, मनोभावों द्वारा यह शक्ति मिल ही नहीं सकती, यह हम नही मानते ।
आदर्श साहित्य वही है जिसमे बुद्धि और मनोभाव दोनो का कलात्मक
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