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साहित्य का उद्देश्य


पर उन्होंने जिस भाषा की दाग बेल डाली, वह लिखने की भाषा थी और वही साहित्य है। बोल-चाल से हम अपने करीब के लोगो पर अपने विचार प्रकट करते है— अपने हर्ष-शोक के भावों का चित्र खींचते है। साहित्यकार वही काम लेखनी-द्वारा करता है। हाँ, उसके श्रोताओं की परिधि बहुत विस्तृत होती है, और अगर उसके बयान मे सचाई है, तो शताब्दियों और युगों तक उसकी रचनाएँ हृदयो को प्रभावित करती रहती है।

परन्तु मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि जो कुछ लिख दिया जाय, वह सब का सब साहित्य है। साहित्य उसी रचना को कहेगे जिसमे कोई सचाई प्रकट की गयी हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एव सुन्दर हो और जिसमे दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो। और साहित्य मे यह गुण पूर्ण रूप से उसी अवस्था मे उत्पन्न होता है, जब उसमे जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गयी हों। तिलस्माती कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं ओर प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने मे हम भले ही प्रभावित हुए हो; पर अब उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसमे सन्देह नहीं कि मानव-प्रकृति का मर्मज्ञ साहित्यकार राजकुमारों की प्रेम-गाथाओं और तिलस्माती कहानियों मे भी जीवन की सचाइयाँ वर्णन कर सकता है, और सौन्दर्य की सृष्टि कर सकता है, परन्तु इससे भी इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि साहित्य मे प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सचाइयों का दर्पण हो। फिर आप उसे जिस चौखटे मे चाहे, लगा सकते है— चिड़े की कहानी और गुलोबुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है।

साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएँ की गयी है; पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा 'जीवन की आलोचना' है। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के, या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।