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साहित्य का उद्देश्य

रखते हैं तो इससे हमारी पाचन शक्ति ठीक हो सकती है, और हम समाज के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकते हैं, इस अर्थ में तो जरूर ब्रत पुण्य है, लेकिन भगवान जी उससे प्रसन्न होकर, या लाख बार राम राम की रट लगाने से, हमारा संकट हर लेंगे, यह बिल्कुल गलत बात है। हम संसार की एक प्रधान जाति है, लेकिन अकर्मण्य और इसलिए पराधीन। अगर ईश्वर अपने भक्तों की हिमायत करता, तो आज मन्दिरों, देवालयों और मस्जिदों की यह तपोभूमि क्यों इस दशा में होती?

लेकिन नहीं, हम शायद भूल कर रहे हैं। भगवान अपने भक्तों को दुखी देखकर ही प्रसन्न होता है क्योंकि उसका स्वार्थ हमारे दुखी रहने में है। सुखी होकर कौन भगवान की याद करता है...दुख में सुमिरन सब करै, सुख मे करै न कोय।


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