सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८६
साहित्य का उद्देश्य

है। यद्यपि हमारे समाचार-पत्रों की जबाने बन्द हैं और देश में जो कुछ हो रहा है, हमें उसकी ख़बर नहीं होने पाती, फिर भी कभी-कभी त्याग और सेवा, शौर्य और विनय के ऐसे-ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जिन पर हम चकित हो जाते हैं। ऐसी ही दो-एक घटनाएँ हम आज अपने पाठकों को सुनाते हैं।

एक नगर में कुछ रमणियाँ कपड़े की दुकानों पर पहरा लगाये खड़ी थीं। विदेशी कपड़ों के प्रेमी दूकानों पर आते थे। पर उन रमणियों को देखकर हट जाते थे। शाम का वक्त था। कुछ अँधेरा हो चला था। उसी वक्त एक आदमी एक दूकान के सामने आकर कपड़े खरीदने के लिये आग्रह करने लगा। एक रमणी ने जाकर उससे कहा-महाशय, मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ, कि आप विलायती कपड़ा न खरीदें।

ग्राहक ने उस रमणी का रसिक नेत्रों से देखकर कहा-अगर तुम मेरी एक बात स्वीकार कर लो, तो मैं कसम खाता हूँ, कभी विलायती कपड़ा न खरीदूँगा।

रमणी ने कुछ सशंक होकर उसकी ओर देखा और बोली-क्या आशा है?

ग्राहक लम्पट था। मुसकराकर बोला-बस, मुझे एक बोसा दे दो।

रमणी का मुख अरुणवर्ण हो गया, लज्जा से नहीं, क्रोध से। दूसरी दूकानों पर और कितने ही वालंटियर खड़े थे। अगर वह जरा-सा इशारा कर देती, तो उस लम्पट की धज्जियाँ उड़ जाती। पर रमणी विनय की अपार शक्ति से परिचित थी। उसने सजल नेत्रों से कहा-अगर आपकी यही इच्छा है, तो ले लीजिए, मगर विदेशी कपड़ा न खरीदिये। ग्राहक परास्त हो गया। वह उसी वक्त उस रमणी के चरणों पर गिर पड़ा और उसने प्रण किया कि कभी विलायती वस्त्र न लूँगा, क्षमा-प्रार्थना की और लज्जित तथा संस्कृत होकर चला गया।

एक दूसरे नगर की एक और घटना सुनिए। यह भी कपड़े की