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साहित्य-सीकर

और कुछ नहीं, प्रायः इसी तरह की अनुपयोगी पुस्तकों की भरमार है। काम-शास्त्र और रति-शास्त्र प्रकाशित करना, अथवा कुछ का कुछ लिख कर गन्दे नाम से देश भर में विज्ञापन छपाते फिरना बड़ी लज्जा की बात है। कुछ लोग कानून के डर से मजमून तो अश्लील नहीं होने देते, पर लोगों को भ्रम में डालने के लिये, नाम कोई गन्दा सा रख देते हैं, जिसमें नाम देख कर ही लोग पुस्तक मँगावें। यह अत्यन्त निन्दनीय काम है। क्या ही अच्छा हो यदि गवर्नमेंट पेनल कोड के अश्लील साहित्य-सम्बन्धी सेक्शन का जरा और व्यापक करके इन कोकशास्त्रियों की पुस्तकें मुरादाबाद की राम-गंगा और झाँसी के लक्ष्मी तालाब में डुबो दें।

जब किसी भाषा की उन्नति का आरम्भ होता है तब उपन्यासों ही से होता है। उपन्यासों के पढ़ने में मन को परिश्रम नहीं पड़ता! बुद्धि की भी सञ्चालना नहीं करनी पड़ती। अतएव सब लोग, मनोरञ्जन के लिये उपन्यासों को प्रेम से पढ़ते हैं। हिन्दी में जो इस समय उपन्यासों का जोरशोर है वह हिन्दी के भावी अभ्युदय का सूचक है। परन्तु उपन्यासकारों का धर्म्म है कि यथासम्भव वे अच्छे उपन्यास लिखें। क्या वङ्किम बाबू ने बँगला में उपन्यास नहीं लिखे? यदि यह कहे कि उपन्यासों के सिवा उन्होंने और कुछ लिखा ही नहीं तो भी अत्युक्ति न होगी। उनका एक भी उपन्यास बुरा नहीं। क्यों फिर उनकी इतनी कदर है? इसीलिए कि उनका रचना-कौशल उत्तम है, उनका कथानक अच्छा है, उनके प्रत्येक पात्र का क्रिया-कलाप स्वाभाविक है, जहाँ जिस रस की अपेक्षा थी वहाँ उसका पूरा परिपाक हुआ है। यदि लेखक अच्छा है तो वह अपने उपन्यास में मनुष्यों के चरित को स्वाभाविक और सार्वजनानुमोदित चित्र खींच कर पढ़ने वालों को मुग्ध जरूर कर देगा। और यदि लेखक अच्छा नहीं तो वह चाहे अपने पात्रों को जितना कुरुचि-कषाय पिलावे, चाहे जितने रहस्यों