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साहित्य-सीकर

मनोहारिणी वाक्य रचना कम हो गई थी। उस समय स्तुति-प्रार्थना की तरफ ऋषियों का ध्यान कम था। यज्ञ-सम्बन्धी सूक्ष्म नियम बनाकर उसी के द्वारा अपने सौख्य-साधन की तरफ उनका ध्यान अधिक था। इसी से जरा-जरा सी बातों के लिए भी उन्हें विधि-विधान बनाने पड़े थे। लौकिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति की कुञ्जी यज्ञ ही समझा गया था।

[सितम्बर, १९०८



२—प्राकृत भाषा

प्राकृत का अर्थ स्वाभाविक है। जो सर्वसाधारण जनों की भाषा हो इसी का नाम प्राकृत भाषा है। अथवा जो प्रकृति से उत्पन्न हो—जिसे मनुष्य प्राकृतिक कारणों से आप ही आप बोलने लगा हो—वही प्राकृत है। इस हिसाब से प्रत्येक देश और प्रत्येक काल की सार्वजनिक स्वाभाविक भाषा प्राकृत भाषा कही जा सकती है। परन्तु यहाँ पर हमारा अभिप्राय केवल उस भाषा से है जो कुछ विशेष शताब्दियों तक भारतवर्ष के जन-साधारण की भाषा थी और जो संस्कृत ग्रन्थों में प्राकृत के नाम से प्रख्यात है। यह भाषा इस देश में कब से कब तक प्रचलित रही इसका निश्चय ठीक-ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि किसी भाषा की उत्पत्ति, विकास और लोप की निश्चित तिथि या निश्चित काल बता देना प्रायः असम्भव है। इसलिए इसके विषय में बहुत मतभेद है। कोई इसे बहुत पुरानी बताते हैं, कोई नहीं। किसी-किसी का मत है कि वैदिक काल से भी प्राकृत भाषा किसी न किसी रूप में, विद्यमान थी। वह उस भाषा से पृथक थी जो वेदो में पाई जाती है। परन्तु कुछ विद्वान् इस मत के कायल नहीं। उनकी राय है कि वैदिक समय में जन साधारण की भी वही भाषा थी जो वेदों में पाई जाती है। हाँ, शिक्षितों और अशिक्षितों