७—संस्कृत-साहित्य का महत्व
भारत में अँगरेज़ी राज्य स्थापित होने के बाद भारतवासियों को अँगरेज़ी शिक्षा दी जाने लगी। उसके द्वारा भारतवासी अँगरेज़ी साहित्य और विज्ञान आदि के मधुर और नवीन रसों का आस्वादन करने लगे। पहले पहल तो अँगरेज़ी की चमक दमक में वे इतने भूल गये और उसके द्वारा मिलनेवाले उन रसों में वे इतने लीन हो गये कि अपने घर की सभी बातें उनको निस्सार और त्याज्य जान पड़ने लगीं। विशेष कर बूढ़ी संस्कृत के साहित्य के विषय में तो उनके विचार इतने कलुषित हो गये जिसका कुछ ठिकाना ही नहीं। वे उसको अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगे। नवविवाहिता वधू के लावण्य और हाव-भाव में भूलकर साधारण बुद्धिवाला युवक अपनी बूढ़ी माँ का अनादर करने लगता है। वह उसे अपने सुख में काँटा समझने लग जाता है। प्रायः ऐसी ही दशा उस समय के नवशिक्षित समाज की हो चली थी। यहाँ तक कि एक नामी भारतीय विद्वान् ने कोई पचास साठ वर्ष पहले, बड़े ज़ोर के साथ कह डाला था कि संस्कृत की शिक्षा से मनुष्य की आँखें मुँद जाती हैं। पर अँगरेज़ी शिक्षा उन्हें खोल देती हैं। इस दशा में यदि यूरोप के विद्वानों को संस्कृत-साहित्य के सम्बन्ध में भ्रम हो जाय तो आश्चर्य ही क्या? समय-समय पर इस प्रकार के कितने ही विलक्षण और निर्मूल आक्षेप संस्कृत पर किये गये हैं। हर्ष का विषय है ऐसे आक्षेपों का मुँह तोड़ उत्तर महामहोपाध्याय डाक्टर हर प्रसाद शास्त्री जैसे विद्वानों के