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पृष्ठ:साहित्य सीकर.djvu/३७

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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

नौकर-चाकरों के वेतन आदि का प्रबन्ध कैसे करना चाहिए, रसोई की व्यवस्था किस ढंग से होनी चाहिए, घर के आस-पास बाग बगीचे किस तरह लगाने चाहिएँ, बीजों की रक्षा किस तरह करनी चाहिए, परिवार के लोगों से गृह-पत्नी को कैसा व्यवहार करना चाहिए—इन्हीं सब बातों का वर्णन उसमें है। कृषि और वृक्ष-रोपण का वर्णन भी बराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में किया है। हमारे स्मृति-ग्रन्थों में तो कितने ही ऐसे संकेत हैं जिनसे ज्ञात होता है कि इन विषयों पर और भी बड़े-बड़े ग्रन्थ विद्यमान थे। पालकाप्य का हस्त्यायुर्वेद और शालिहोत्र का अश्व-शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत-निवासी पशु-पालन और पशु चिकित्सा में भी प्रवीण हैं। इन ग्रन्थों से जाना जाता है कि प्राचीन ऋषियों ने कितनी चिन्ता और कितने परिश्रम से पशुओं के स्वभाव आदि का ज्ञान सम्पादन किया था, उनके जनन और पालन के नियम बनाये थे; उनके रोगों तथा उनकी चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त किया था। पाकशास्त्र पर तो कितनी ही पुस्तकें हैं। पेड़ों और वनस्पतियों के फलों, जड़ों, छालों, पत्तों, डंठलों, फूलों और बीजों तक के गुण धर्म का विवेचन इनमें मिलता है। भिन्न-भिन्न जन्तुओं के मांस के गुण-दोषों का भी उनमें वर्णन है।

शास्त्रीय विषय

शास्त्र का ज्ञान दो ही उपायों से प्राप्त किया जा सकता है। (१) निरीक्षण या (२) प्रयोग-द्वारा, कुछ लोगों का कहना है कि भारत-निवासियों ने शास्त्रीय विषयों पर कुछ विचार किया है। सही, पर प्रयोग करना वे न जानते थे। यह निरा भ्रम है। देखिए, गणित-शास्त्र में निरीक्षण ही प्रधान है। निरीक्षण ही के बल पर उसकी सृष्टि हुई है। भारत वासियों को प्राचीन समय की सब जातियों से अधिक