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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

अधिक मुख्य पात्रों का वर्णन रहता है। पुराण के आरम्भ से अन्त तक उनका कार्य कलाप दिखलाया जाता है। रघुवंश में एक विशेषता है। वह यह कि उसके मुख्य पात्र बीच ही में लुप्त होते जाते हैं। फिर भी उनका उद्देश, उनका कार्य और उनकी नीति की एकता ज्यों की त्यों बनी रहती है। उनकी शृङ्ख‍ला खण्डित नहीं होती। यह विशेषता, यह चमत्कार, रघुवंश के सिवा और कहीं न पाइएगा।

अन्यान्य-विषय

जो साहित्य किसी मनुष्य जाति के सम्पूर्ण कार्यों और जीवन को प्रतिबिम्बित करता है वही पूर्ण और प्रभावशाली कहा जाता है। अर्थात् जिस साहित्य के अवलोकन से यह जाना जा सके कि अमुक जाति के कार्यों की दिशा और उसकी सभ्यता अमुक प्रकार की है और उसके जीवन में अमुक विशेषतायें हैं, वही साहित्य श्रेष्ठ है। यदि यह सिद्धान्त सच हो तो संस्कृत साहित्य ही ऐसा साहित्य है जिस पर यह लक्षण घटित होता है। अपने प्राचीन समय की याद कीजिए। उस समय न कागज ही मिलते थे, न छापने की कला ही का उदय हुआ था। पर हमारा संस्कृत-साहित्य तब भी पूर्णावस्था को पहुँच गया। और शास्त्रों की बात का तो कहना ही क्या है, संस्कृत साहित्य में चौर-शास्त्र तक विद्यमान है। भास और शूद्रक ने अपने ग्रन्थों में उसका उल्लेख किया है। चौर-शास्त्र पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी मिला है। उसका लेखक भी चौर ही था। उसने उसमें चौर कर्म का अच्छा वर्णन किया है। यह ग्रंथ ताड़-पत्र पर लिखा हुआ है। इसी तरह बाज पक्षी आदि पालने पर भी एक पुस्तक मिली है। इन पक्षियों की भिन्न-भिन्न जातियों, उनके पालन पोषण के नियमों तथा उनके उपयोगों का उसमें वर्णन है।