सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्य सीकर.djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८०
साहित्य-सीकर

है रिवाज का कायल मैं जरूर हूँ। पर आप तो मुझसे भी बढ़ कर उससे भक्त हैं। इस लिपि-विषयक छोटे से रिवाज को मानने ही में आप कुछ हिचकिचाते हैं। और बड़े बड़े रिवाजों के सामने आप आँख मूंद कर सिर झुकाते हैं।

ग॰—जरा स्पष्ट करके कहिये।

दे॰—क्षमा कीजिए। विषयान्तर होगा। पर आप ही की आज्ञा से। आप पुराने विचारों के दृढ़ सनातन धर्मानुयायी हैं?

ग॰—निःसन्देह!

दे॰—तो फिर आप छोटी उम्र में लड़कियों का विवाह कर देने, स्त्रियों को स्कूलों और कालेजों से दूर रखने, विधवाओं से ब्रह्मचर्य्य पालन कराने और नीच जातियों को अस्पृश्य समझने के रिवाज के पक्षपाती हैं या नहीं?

ग॰—हूँ तो अवश्य; पर वे सब रिवाज नहीं। उसके लिए शास्त्राज्ञा है।

दे॰—शास्त्राज्ञा! स्त्रियों को निरक्षर रखने की भी शास्त्राज्ञा! अच्छा तो मानिए शास्त्राज्ञा। मनु की आज्ञा है—

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥

बताइए, स्कूल और कालेज में आपने कुछ वर्ष गंवाये हैं या नहीं? यह भी बताइए कि कौन-कौन सा वेद आपने याद किया है? शास्त्राज्ञा की बदौलत अब आप अपने अस्पृश्य जनों की बिरादरी में जा रहे हैं, और हिन्दी के कुछ शब्दों की तरह, आपका वर्णान्तर होने भी देर नहीं। शास्त्राज्ञा आपको नहीं बचा सकती। बचा सकता है तो केवल रिवाज, रूढ़ि या लोकाचार। उसमें बड़ा बल है। अतएव, दया करके हिन्दी को उसके आश्रय से वञ्चित न कीजिए।