खड़ी हुई हैं जिनका एकमात्र व्यवसाय पुस्तकों को प्रकाशित करना और उन्हें बेचकर सर्वसाधारण को लाभ पहुँचाना है। पुस्तक-प्रकाशन का व्यवसाय करने वालों की बदोलत शिक्षा और विद्या के प्रचार में जो मदद मिलती है तो मिलती ही है; उनसे एक और भी उपकार होता है। वह यह कि पुस्तक-प्रणेता जनों के परिश्रम को सफल करके ये लोग उन्हें उनके परिश्रम का पुरस्कार भी देते है। इससे ग्रन्थकर्त्ता लोग जीवन निर्वाह के लिये और झझटों में न पड़कर, आराम से उत्तमोत्तम पुस्तकें लिखते हैं, और उन्हें पुस्तक-प्रकाशकों को देकर उनसे प्राप्त हुये धन से आनन्दपूर्वक अपना निर्वाह करते हैं। इस प्राप्ति की बदौलत उनको रुपये पैसे की कमी नहीं रहती। पेट की ज्वाला बुझाने के लिये उन्हें दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती। जितनी ही अच्छी, जितनी ही उपयोगी; पुस्तक व लिखते है उतना ही अधिक पुरस्कार भी उन्हें मिलता है। इससे उनका उत्साह बढ़ता है और अच्छे अच्छे ग्रन्थ उनकी कलम से निकलते है। सुशिक्षित देशों में ग्रन्थ लिखने का एक व्यवसाय ही हो गया है। इस व्यवसाय के लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते है।
जहाँ पुस्तक प्रकाशन का व्यवसाय होता है वहाँ पुस्तक लिखने वालों को, अपनी पुस्तकें छपाकर प्रकाशित करने में, प्रयास नहीं पड़ता, और यदि पड़ता भी है तो बहुत कम। उन्होंने पुस्तक लिखी और किसी अच्छे प्रकाशक के सिपुर्द कर दी। उससे पुरस्कार लिया और दूसरी पुस्तक के लिखने में लगे। प्रकाशक ने उस पुस्तक को प्रकाशित करके उसके करोड़ों विज्ञापन दुनियाँ भर में बाँटे। यदि पुस्तक अच्छी हुई तो थोड़े ही दिनों में उसकी हज़ारों कापियाँ बिक गई। ऐसी पुस्तकें लिखनेवालों को लाभ भी बहुत होता है। भारतवर्ष के वर्तमान सेक्रेटरी आफ स्टेट, जान मालें साहब, ने ग्लैडस्टन साहब का जीवनचरित लिखकर लाखों रुपये कमाये हैं। पोप कवि,