पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८

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१३ श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र। जन्म अंध गज्योति विहीना । जननि जनक कछु हर्षन कीना ॥३॥ रहे मोन वांधव समुदाई । करहिं प्रीति केवल इक माई। अष्ट वर्ष कर जानि सुहावा। यज्ञोपवीत जनक तव पावा ॥४॥ भयो प्रसिद्ध नगर अभिरामा। सूरदास ताकर अस नामा। अवसर एक मातु पितु संगा। आन लोक पुर प्रेम उमंगा ॥५॥ कृष्ण जन्म पुरि दरशनलागी। आए सकल-सदन निज त्यागी। करि यात्रा विधिवत अनुरागे । जब निज सदन चलन सब लागे॥६॥ सूरदास तव कहत उचारी | मैं अब इहां सदन नगधारी। कछुदिनकरहुँललितनिजवासा। कृष्णप्रसाद विगत श्रम त्रासा॥७॥ तुव निज गवहुँसदनशुभकाहीं । चिंता मोर करहु कछु नाहीं। सुनिअसजननिजनकतहिवानी। सुत सनेह निज मानसवानी ॥८॥ रुदन करत अस वचन उचारे। बसत अंघ हग युगल तुम्हारे । कराहे कवन भोजन पट दाना। शिशु निदान तुव देश विराना ।। ९॥ कसतजिजाहि सुवनपितु माता। काहुन देखि परत तुव त्राता। सुनिअसजननिजनकमुखबानी । कृष्ण भरोस सूर जिय मानी ॥१०॥ दोहा-चोल्यो अभय प्रसन्न मन वदनवचन सुखदानातुवजियकरहुनसोच कछु, मोहिविदेश असजान चौपाई-मोरे कृष्ण देव भगवाना । करनहार कल पालन ताना। अन्ध दीन बलहीन न कोही। पोषन करत देव प्रभु सोही॥१॥ शरन चरन दुख हरन करीके । परे कोटि अस मोर सरीके । दीनबन्धु जन दीननपाला । दीननाथ प्रभु दीनदयाला॥२॥ दीनहरन भय दीन उवारन । दीन सुखद दुख दीन निवारन । अस प्रकार जव दीन सहाए । विदित पुराण वेद श्रुति गाए॥३॥ मोरे कसन होहिं तव मय्या जानि दीन हग हीन सहय्या। तव अस सुनत वचन वर ताहू। साधु 'जठर दाया वश काहू ॥४॥ बोल्यो सूर मातु पितु काही । तुव न करहु चिन्ता जिय माहीं। हर्षि जाहु सुभ्रत निज गेहू । तुव हग हीन बाल बर एह ॥५॥ मोरे वसहि सदन सुखमानी। अस कहि गहत संत शुभ पानी। चल्यो प्रसन्न लेत कल भवने । उत पितु मातु सदन निज गवने ॥६॥ साधु सनेह 'प्रीति अवलोकी । भई प्रसन्न मातु गत शोकी। सूरदास मानस अनुरागा। प्रमुदित वसन संत गृह लागा॥७॥ 'पूरव चरित्र कृष्ण कल गायन । रह्यो सुनत सादर मनभायन । आपु प्रेम युत भक्ति उमंगा। वैष्णव संत जनन कर संगा॥८॥ नृत्य गीत गायन करि चारू । कृष्ण चरित्र विमल मन हारू। प्रभु अद्भुत लीला 'जिमि कीनी । आदि उपांत श्रवन करि लीनी ॥९॥ तासु प्रसाद कृष्ण भगवाना । सो पूरव संचित निन 'ज्ञाना। - -