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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०

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श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र।


सूरति विमल बाल बल भय्या।निरत प्रवर परचारन गय्या॥
सूर विलोकि रूप मनहरना।पयो दंडवत चरणन धरना॥५॥
सुमिरि कृष्ण जब शीश उठाया।कीन तुरंत मुग्ध प्रभु माया।
जानत भयो सूर मनमाहीं।गोप बाल नँदनंदन काहीं॥६॥
लग्यो बहुरि अस वदन उचारन।तुमहुँ कूप च्युत कीन निवारन॥
भयो सहाय अंध तकि मोरा।अहो कीन उपकार न थोरा॥७॥
बंदहुँ बार बार अब तोहीं। कीन्ह्यो कूप त्रास गत मोहीं।
अव वृतांत निज देहु सुनावा।कहि ते आव कवन कित जावा॥८॥
मोह विवस अस तासु निहारी।बोले गोप वेष गिरिधारी॥
मथुरा बसहुँ गोपसुत भय्या‌।आवा विविन चरन हितगय्या॥९॥
तोरे देखि भक्त दृग हीना।उहाँ निवरन कूप चुत कीना॥
अव तुमजाहु सदनसुखमाना।मैं इत करहुँ विपिन निजप्याना॥१०॥

दो०-अस कहिवत्सलभक्त प्रभु, कृष्णदलनदुख कूर। द्रुमन ओट करुनायतन,गए कछुकजबदूर १॥

चौपाई-तव दर्शन हित सूर सुजाना।पाछिल चल्यो वेग अकुलाना॥
गवन्यो कहाँ बाल मृदु अंगा।हरण ललित छवि कोटि अनंगा॥१॥
इत उत फिरहिं विथत मनमाहीं।आवत दृष्टि बाल प्रभु नाहीं॥
अतिशय केश सूर तब पावा।पूछत पथिक देखि जित आवा॥२॥
को अस बरन श्याम मृदु चारू।वेत्रपाणि गय्यन चरवारू।
कामर कन्ध माल बन सोहा।देखा तुमहु बाल मन मोहा॥३॥
सुनतहि कथन पथिक इहि भाँती।इह कस कहत कवन तोहि भांती॥
इहाँ न काउ धेन वनचारी।जाहु सजन निज सदन सिधारी॥४॥
सूर सुनत अस पथिक बखाना।आगल चल्यो विपिन विसमाना॥
खोजत नील जलधवत वरना।गोपवाल कानन मनहरना॥५॥
भ्रमत भ्रमत दारुण श्रम पाया।बैठ्यो अंत व्यथित द्रुमछाया॥
तोलो ढुरयो सूर निशि छायो।भक्त सूर व्याकुल उठि धायो॥६॥
जहॅं तहॅं लग्यो भ्रमन वन माहीं।खोजत गोपवाल मृदुकाहीं॥
गति अनन्य अस भक्त जुड़ाना।भा तद्रूप कृष्ण भगवाना॥७॥
पावन भक्ति प्रीति मनमाहीं।तजि न जाहि कानन पुर काहीं॥
तब निशि स्वप्न रूप मृदु सोई।देखे दिवस गोपसुत जोई॥८॥
मंदहास युत भक्त सहय्या।बोले बदन वचन सुखदय्या॥
इहाँ न भक्त गोपसुत कोई।मेंहुँ कीन कौतुक कल सोई॥९॥
कीन्हो तुमहिं कूप चुत वारन।बनत गोप बन गय्यन चारन॥
ज्योति विमल तुव हगन प्रकासा।भक्त सृष्ट सब मोर विलासा॥१०॥
तुव नयनन इन लीन निहारी।मोर स्वरूपं भक्त व्रतधारी॥
तुव हित देन दरश मन हारू।इह मैं कीन चेष्ट निज चारू॥११॥