पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५०

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दशमस्कन्ध-१० (२५७) मुघराई ॥ छोटी मटुकिया मधुर चालले चलीरी गोरस वेचन रसाल। हरवराइ उठि आइ प्रातते विथुरी अलक अरु वसन मरगजै तैसीये सोहति कुँभिलानी माल ॥ गेहनेह सुधि नेक न आवति मोहिरही तजि भव जंजाल । और कहति और कहि आवति मनमोहनके ख्याल ॥ जोइ जोइ बूझतहेरी कहा यामें कहति फिरति कोऊ लेहु गोपाल । सूरदास प्रभुके रस वश भई चतुर खारिनी तनु मनुगति वेहाल ॥ ८२ ॥ कान्हरो ॥ दधि मटुकी शिरधरे ग्वालिनी कान्ह कान्ह करती डोले । विवसभई तनु न सँभारैरी गोरस सुधि विसार गई आप विकानी विनुमाले ॥ जोइ जोइ पूछत यामें हैरी कहा लेहु लेहु करति फिरति डोल डोले ॥ सूरदास प्रभुके रस वश भई ग्वालिनी विरहा वशतनुगति भयो डोले ॥ ८३ ॥ धनाश्री ॥ वेचतिही दधि व्रजकी खोर । शिरको भार सुरति महि आवति श्याम श्याम टेरत भई भोरि ॥ घर घर फिरति गोपालहि वेचति मगनभई मन ग्वारि किसोरि । सुंदर वदन निहारन कारन अंतर लगी सुरतिकी डोरि ॥ ठाढ़ी भई विथकि मारगमें माँझ हाट मटकीसो फोरि । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि चित चिंता मणि लियो अजोरि ॥ ८४ ॥ विलावल ॥ नर नारी सब बूझत जाई । दही मही मटुकी शिरलीन्हे वोलतिहो गोपाल सुनाई ॥ हमहि कहो तुम करति कहा यह फिरति प्रातहीतहो आई। गृह द्वारा कहुँ है की नाही पितामात पति वंधु नमाई ॥इतते उत उतते इत आवति विधि मर्यादा सवै मिटाई । सूरश्याम मनहरयो तुम्हारो हम जानी इह वात बनाई ॥ ८५ ॥ धनाश्री ॥ कहति नंदघर मोहिं वतावहु । द्वारहि मांझ वात इह कहती है कहा मोहिं दिखावहु ॥ याही गाँव किधौं और कहु जहां महरको गेहु । बहुत दूरिते मैं आईहौं कहि काहेन यश लेहु ॥ अतिही संभ्रम भई ग्वालिनी द्वारेही पर ठाढी। सूरदास स्वामीसों अटकी प्रीति प्रगट अतिवादी ॥८६॥ गुंडमलार ॥ ग्वारिनि नंददार नंद गृह वूझै । इतहिते जाति उत उतहिते फिर इत निकट जाति नहिं नेक सूझै॥भई बेहाल ब्रजवाल नंदलाल हित अर्पि तनमन सबै तिन्है दीन्हों। लोकलज्जा तजी लाज देखत लजी श्यामको भजी कछु डर न कीन्हों।। भूलिगयो दधि नाम कहति लेहौ श्याम नहीं सुधि धाम कहहै कि नाहीं । सूर प्रभुको मिली भेट भली अनभली चून हरदी रंग देह छाही ।। ॥ ८७॥ रामकली । तंव एक सखी प्रीतम कहति । प्रेम ऐसो प्रगट कीन्हों धीरकाहेन गहति ॥ वन घरनि उपहास जहँ तहँ समुझि मन किनु रहति।वात मेरीसुनत नाहिन कतहि निंदा सहति॥मातु पितु गुरु जननि जान्यो भली खोई महति । सूर प्रभुको ध्यान चितधरि अतिहि काहे वहति॥८८॥ धनाश्री| आप कहावति बड़ी सयानी। तब तू कहति सबनिसों हँसि हँसि अव तूप्रगटहि भई दिवानी।। कहागई चतुराई तेरी अतिही काहे भई अयानी । गुप्तप्रीति परगट तैं कीन्ही सुनति कछू घरघरकी वानी ॥ एकहि वेर तजी मर्यादा मात पिता गुरुजनहि भुलानी । सुनहु सूर ऐसी न बूझिए शीश धरे मटुकी विततानी ॥८९॥ नटया सुनुरी ग्वारि मुगुध गवारि। श्यामसों हित भले कीन्हों राखिसकै उवारि ॥ ओछी बुधितै करी सजनी लाज दीन्ही डारि । लाज आवति मोहिं सुनिरी तोहिं कहत गॅवारि॥कृष्णधन कहा प्रगट कीजै दियो ताहि उघारि। अजहुँ काहेन समुझि देखति कह्यो सुनोरी नारि॥ ज्वाव नाहिन आवई मुख कहतिहो जो पुकारि। सूरप्रभुको पाइकै यह ज्ञान हृदय विचारि॥ ॥९०॥कान्हरो॥कछु कैहेको मौनहि रहिहै।कहा कहति हैं।तोसों तवकी ताको ज्याव कछू मोहि देहै। । सुनिह मात पिता लोगनि मुख यह लीला उनि सबै जनैहै। प्रातहि ते आई दधिवेचन घरही आजुन ! जैहै।मेरो कह्यो मानिहै, नाहीं ऐसेही भ्रमिभ्रमि घोस वितैहै।मुखतौ खोलि सुनौतेरीवानी भली बुरी.