पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८८

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दशमस्कन्ध-१० दिक नारद शारद अंत न पावै तुम्बर । सुर श्याम गति लखि न परत कछु खात ग्वालन तजि, समर ॥६० ॥ गौरी ॥ सुरति अंत वैठे वनवारी। प्यारी नैन जुरत नहिं सन्मुख सकुचि हँसत गिरिधारी ॥ वसन सँभारि तन लेत गये दोऊ आनंद उर न समाइ । चितवत दुरि दुरि नैन लजौही सो छवि वरनि न जाइ॥नागरि अंग मरगजी सारी कान्ह मरगजे अंग । सूरज प्रभु 'प्यारी वश कन्हिा हाव भाव रति रंग॥६॥सोरठ ।। रीझे श्याम नागरी छविपर । प्यारी एक अंग पर अटकी यह गति भई परस्पर ॥ देह दशाकी सुधि नहिं काहू नैन नैन मिलि अटके । इन्दीवर राजीव कमल पर युग खंजन युग लटके ।। चकृत भए तनुकी सुधि आई वनहीं में भई राति । सूर श्याम श्यामा विहार करि सो छविकी एक भाँति ॥ ६२ ॥ आसावरी ॥ कान्ह कह्यो वन रौनि न कीजै सुनहु राधिका प्यारी हो । अति हित सो उरलाइ कह्यो अब भवन आपने जारी हो ॥मात पिता जिय जान न कोई गुप्त प्रीति रस भारी हो । करते कौर डारि मैं आयो देखत दोउ महतारी हो ॥ तुम जो प्यारी मोही लागत चन्द्र चकोर कहारी हो । सूरदास स्वामी. इन वातन नागरि रिझई भारी हो ॥ १३॥ कल्याण ॥ प्यारी उठि पियके उर लागी। आलस अंग लटकि लट आई दोखि श्याम बडभागी ।। सुरति मोन निशि वीती मानों हँसनि प्रात भयो जागी । अति सुख कंठ लगाइ लई हरि अरस परम अनुरागी ॥ नवतनमें घनवेली दामिनि सहज मेंटि मिलि पागी । सूरदास प्रभुको अंकम भरि का मद्वंद्व . तनु त्यागी॥६॥ ॥ गौरी ॥ कहा करौं पग चलत न घरको । नैन विमुख देखे जात न लुम्बे अरुन अधरको ॥ श्रवन कहत वे वचन सुनै नहिं रिस पावत मो परको । मन अटक्यो रस मधुर हँसनि पर डरत नकाहू डरको । इंद्री अंग अंग अरुझानी झ्यामरंग नटवरको । सुनहु सूर प्रभु रही अकेली कहा करौं सुंदरवरको ।। ६६ ॥ श्याम आपनी चितवनि वरजो अरु मुखकी मुसकानी । तुम्हरे तनक सहजके कारन सहियत सरवस हानी ॥ इजै विजै दोऊ आपुसमें निरये विधना आनि । विद्यमान सवही इन देखत वशकरवेकी वानि ॥ आपुनही डहकाय अपुनपो कहियत कहा वखानि । सूर सुगंथ गँवाइ गांठिको रही वौरई मानि ॥६६॥विहागरो|अतिहित श्याम बोलेवैन । तुम वदन देखे विनाये तृप्तहोत ननैन । पलक नहि चितते टरात तुम प्राणवल्लभ नारि सुनति श्रवननि वचन अमृत हरप अंतर भार ॥ मात पित अवसेर करिहै गवनकीजेगेह । सूर प्रभु प्रिय त्रिया आगे प्रगटि पूरन नेह ॥६७॥ श्यामप्रगट कीन्हों अनुराग । अतिआनंद मनहि मन नागरि वदति आपने भाग ॥ सुंदरघन उत ब्रजहि सिधारे इतहि गमन करि नारि । दंपति नैन रहे दोउ भरि भरि गये सुरति रति सारि ।। जननी मन अवसेर करतिही हरी पहुँचे तेहि काल । सुरश्यामको मात अंकभार कहति जाउँ पलिलाल ॥ ६८॥ मैं वलि जाऊं कन्हैयाकी। करते कॉर डारि उठिधायो व्यात सुनी वनगैयाकी ॥ धौरी गाइ आपनी जानी उपजी प्रीति लवैयाकी । तातो जल समोइ.पग धोवति श्याम देखि हित मैयाकी ॥ जो अनुराग यशोदाके उर मुखकी कहति नन्हैयाकी । यह मुख सूर और कहुँ नाहीं सौह करत बलभैयाकी ॥६९॥ ईमन ॥ कान्ह प्यारे वारने जाऊं श्याम सुंदर मूरति पर । छविसों छवीली लटकि वदनपर । चंद्रिकाकी लटकनि अतिहिं विराजत मुरली सुभग धरेकर | सुंदरनैन विसाल भौंह सुरचाप मनोतिलक विरा जित ललित भालपर । सूरश्याम मेरों अतिवानक बन्यो वनमाला अतिही उर राजत कटि तट सोहत पीतांवर ॥ ७० ॥ विहागरो ॥ वई तो मेरी गाइ न होई । सुन मैया मैं वृथा भरम्यो वन