पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (३२३) तुमसों फिरिकै रुचि मानें कहति अचंभव वात ॥रसलंपटवै भए रहतहैं बज घर घर यह वानी। | हमहूँको अपराध लगावहिं एऊ भई देवानी।।लूटहि ए इंद्री मन मिलिकै त्रिभुवन नाम हमारो । सूर कहा हरि रहत कहा हम यह काहे न विचारो॥ धनाश्रीनिननते यह भई बड़ाई। घर घर इहै चवाव चलावत हमसों भेट नमाई ॥ कहां श्याम मिलि बैठी कवहूं कहनावति व्रज ऐसी । लूटहिए उपहास हमारो यहतौ वात अनैसी ॥ एई घर घर कहत फिरतहैं कहा करें पचिहारी । सूरश्याम यह सुनत हँसतहैं नैन किए अधिकारी ॥ सारंग ॥ नैनभए अधिकारी जाइ। यह तुम बात सुनी. सखि नाहीं मन आए गए भेद बताइ॥जब आवे कवहूं ढिग मेरे तब तब इहै कहतहैं आइहमहीलै मिलयो हम देखत श्यामरूपमें गए समाइ ॥ अब वोऊ पछितात वात कहि उनहूंको वै भए बलाइ अपनो कियो तुरत फल पायो जैसी मन कीन्ही अधमाइ ॥ इंद्री मन अव नैनन पाछे ऐसे उन वश किए कन्हाइ । सूरदास लोचनकी महिमा कहा कहैं कछु कही नजाइ ॥ रामकली ॥ जयते हरि अधिकार दियो। तवहींते चतुरई प्रकाशी नैनन अतिहि कियो ॥ इंदिनपर मन नृपति कहावत नैनन इहै डरात । काहेको मैं इनहिं मिलाए जानि बूझि पछितात ॥ अब सुधि करन हमारी लागे उनकी प्रभुता देखिोहियो भरत कहि इनहि ढराऊं वे इकटक रहे देखि।अब मानीहैं दोप आपनी हमहीं बेच्यो आइ। सूरदास प्रभुके अधिकारी एई भए बजाइ ॥ बिलावल । यद्यपि नैन भरत दर जात । इकटक नैक नहीं कहुँ टारत तृप्ति नहोत अपात ॥ अपनेही मुख मरत निशादिन यद्यपि पूरणगात । लेले भरत आपने भीतर औरहि नहीं पत्यात ॥ जोइ लीजै सोईहै अपनो जैसे चोर भगात । सुनहु सूर ऐसे लोभी धनि इनको पितु अरु मातः । सोरठ | नैना अतिही लोभ भरे । संगहि - संग रहत वै जहँ तहँ बैठत चलत खरे ॥ काहूकी परतीति नमानत जानत सबहिन चोर । लूटत रूप अखूट दामको श्याम वश्ययो भोर ।। बडे भाग मानी यह जानी कृपिण न इनते और । ऐसी निधि में नाउँ न कीन्हो कह लेहै कह और ॥ आपुन लेहिं औरहूं देते यश लेते संसार । सूरदास प्रभु इनहि पत्याने कोकहै वारहि वार ॥ कान्हरो ॥ ऐसे आपस्वारथी नैनाअपनोई पेट भरतहे निशि दिन और नलैन नदैन ॥ वस्तु अपार परयो वोछे कर ए जानत घट जैहै । को इनसों समुझाइ कहै यह दीन्हेही अधिकैहै ।। सदा नहीं रहो अधिकारी नाउँ राखि जो लेते । सूरश्याम सुख लूटै आपुन औरनिहूको देते.॥ ॥ विलावल । जे लोभी ते देहं कहारी । ऐसे नैन नहीं मैं जाने जैसे निठुर महारी ॥ मन अपनो कवहूं वरु द्वैहै ए नहिं होहिं हमारे । जवते गए नंदनंदन ढिग तवते फिरि न निहारे ॥ कोटि करौं वै हमहिं न मानैं गीधे रूप अगाध । सूरश्याम जो कवहूं त्रासै रहै हमारी साध ॥ नट ॥ नैना. भये घरके चोर लेत नहिं कछु बनै इनसों देखि छवि भए भोर ।। नहीं त्यागत नहीं भागत रूप जाग-प्रकाश । अलक डोरनि बांधि राखे तजौ उनकी आश ॥ मैं बहुत कार वरजिहारी निदार निकसे हरि । सूरश्याम बधाइ राखे अंगके छवि घरि ॥ विलावल ॥ भली करी उन श्याम बँधाए । वरज्यों नहीं करचो उन मेरो. अति आतुर उठि धाए ॥ अल्पचोर बहुमाल लुभाने संगी सर्वन धराए । निदार गए. तैसो. फल पायों अब वै भए पराए॥ हमंसों इन अति करी ढिठाई जो करि कोटि बुझाए । सूरगए हरि रूप चुरावन उन अप- वश करि पाए । विहागरो ॥ लोचन चोर बांधे श्याम । जातही उन तुंरत पकरे कुटिल अलकनि दाम ॥ सुभग ललित कपोल आभा गीधे दाम अपार । और अंग छवि लोग जागे अब नहीं। -