पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६३

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(४७०) सूरसागर। . . परिसाने । देखि यह पराक्रम तब कंस जिय विलखाने । दुःखदलन अभय दान करै करन दाने । जो जिहि जबहिं कह सवै गोवर्धन राने ॥ कंस सुनि अचेत भयो बजनलगे बाजा । कहि.अशीश गगन उठे सिद्ध सुरसमाजा ॥ सुभट रहे देखतही राके दरवाजा । सूरनंदनंदन गए जहाँ कंस राजा॥१०॥ मारू । नवल नंद नंदन रंगभूमि राजै। श्यामतन पीतपट मनों घनमें तडित मोरके पंख माथे विराजै॥ श्रवण कुंडल झलक मनों चपला चमकि हग अरुण कमल दलसे विशाला। भौंह सुंदर धनुष बाण सम शिर तिलक केश कुंचित सोभित भुंगमाला ॥ हृदय वनमाल नूपुर चरणलोल चलत गजचाल अतिबुद्धि विराजै । हंस मानो मानसर अरुन अंबुज सुथल निरखि आनंद करि हरषि गाजै ॥ कुवलिया मारि चाणूर मुष्टिक पटकि वीर दोऊ कंध गजदंत धारें। ढाल तरवारि आगे धरी रहिगई महलको पंथ खोजत न पावत। लातके लगत शिरते गयो मुकट गिरि केश धरि लेचले हरषि सावंत । चारिभुज धारि तेहि चारु दरशन दियो चारि आयुध चहुँ हाथ लीन्हें । असुर तजिं प्राण निर्वाण पदको गयो विमलगति भई प्रभुरूप चीन्हें । देखि यह पुहप वर्षाकरी सुरन मिलि सिद्ध गंधर्व जैधुनि सुनाई ॥ सूर प्रभु अगम महिमा न कछु कहि परत सुरनकी गति तुरत असुर पाई॥११॥ मारूदेखि नृप तमकि हरि चमकि तहाई गए दमकि लीन्हों गिरहबाज जैसे। धमकि मान्यौ घाउ गुमकि हृदय रह्यो झमकि गहिकेश ले चले ऐसे ॥ठेलि हलधर दियो झेलि तब हरि लियो महलके तरे धरणी गिरायो । अमर जय ध्वनि भई धाक त्रिभुवन भई कंस मान्यौ निदरि देवरायो॥ धन्य वाणी गगन धरणि पाताल धनि धन्यहो धन्य वसुदेव ताता। धन्य अवतार सुर धरनि उपकारको सूर प्रभु धन्य बलराम भ्राता ॥ १२॥ बिलावल ।। जयजय ध्वनि तिहुँलोक भई । मारयो कंस धरणि उद्धारयो ओक ओक आनंद मई॥ रजक मारिकै दंड विभंज्यो खेल करत गज प्राण लियो मल्ल पछारि असुर संहारे तुरत सबनि सुरलोक दियो ॥ पुर नर नारीको सुख दीन्हों जो जैसो फल सोई लह्यो । सूर धन्य यदुवंश उजागर धन्य धन्य ध्वनि घुमरि रह्यो ॥ १३ ॥ गुंडमलार ॥ हरष नर नारि मथुरा पुरीके । सोच सबको गयो दनुज कुल सब हयो तिहुँ भुवन जै जयो हरप कूबरी के॥ निदरि मारयो कंस प्रगट देखत सबै अतिहि दिन अल्पके नंद भए ढोटा। नैन दोऊ ब्रह्मसे परम सोभातसे भक्तको जैसे शुभ हंस जोटादेिवदुंदुभी बजी अमर आनंद भए पुहुप गण वरषही चैन । जान्यो। सूर वसुदेव सुत रोहिणी नंद धनि धनि मिल्यो भुव भार अखिल जान्यो॥१४॥ रामकली। निदार तुरत मारयो कंस देवनाथा। निदरि मारयो असुर पूतना आदिते धरणि पावन करी भई सनाथा ॥ लोक लोकन विदित कथा तुरतही गई करन स्तुतिहि जहां तहां आए । देवदुदुभि पुहुप वृष्टि जै ध्वनि करै दुष्ट यह मारि सुर पुर पठाए ॥ केश गहि करषि यमुना धार डारिदै सु न्यो नृपनारि पति कृष्ण मारयो । भई व्याकुल सबै हेतु रोवन लगीं मरनको तुरत ज्योहत..वि चारयो।गए तहां श्याम बलराम बोधी सबै कहति तब नारि तुम करी नैसी। नृप सुनहु वाम इह काम ऐसोई रह्यो जानि यह बात क्यों कहति ऐसी ॥ मरति काहे कहा तुमहिको यह भई जानि अज्ञान तुम होति का।सूर नृपनारि हरि वचन मान्यो सत्य हरष वै श्याम मुख सबनि चाहे।॥१६॥ ॥ कल्याण ॥ रानिन परखोधि श्याम महलद्वारे आए। कालनेमि वंश उग्रसेन सुनत धाए ॥ झुकि चरणन परयो आइ त्राहि त्राहि नाथा। बहुतै अपराध परे छिन में सनाथा|महाराज कहि श्रीमुख | लियो उरलाई । हमको अपराध क्षमहुँ करी हम ढिठाई ॥ तवहीं सिंहासन पाँउ उग्रसेन धाराछत्र ॥ ।