पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९०

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दुशमस्कन्ध-१० (१९७) जात पापमें कहत सूर विरहिनि दुखदाई॥५१॥ फेदारो यह शशि शीतल काहेते कहियतामीनकेत अंबुज आनंदित ताते ताहित लहियत ॥ विरहिनि अरु कमलनि त्रासत कहुँ अपकारी रथनहिं यत । सूरदास प्रभु मधुवन गौने तो इतनो दुखसहियत ॥५२॥ करधनु लिए चंद्रहि मारिरीतव तोपै कछुवै न सिरहै जव अतिज्वर जैहै तनुजारि ॥ सूहरवाइ जाइ मंदिरचढि शशिसन्मुख दर्पण विस्तारि । ऐसी भांति वुलाइ मुकुर महि आत बल खंड खंड करिडारि ॥ सोई अवधि निकट आईहै चलतही जो दई सुरारािसूरसो विनय करति हिमकरसों अब तू उदोछाँडिदिनचारि॥५३॥ ॥ सारंग ॥ हरको तिलक हरि विनु दहत । वै कहियत उडुराज अमृतमैतजि स्वभाव मोहिं वहनि वहत ॥कत रथ थकित भयो जु पश्चिम दिशि ग्राह ग्रसित जैसे ग्रहन ग्रहत । छयो न छीन होत सुन सजनी भूमि भवनरिपु कहा वसत ॥ जाको ध्यान धरतिहौं दधिसुत मणिं महशजैसे रहनि रहत । सूरदास प्रभु तुम्हारे मिलन विना प्राणतजति यह नाहिनै सहत॥५४॥ मारू या विन होव कहा यह सुनो। लेकिन प्रगट कियो प्राचीदिशि विरहिनिको दुखदूनो।सब निरदै सुर असुर शैल सखि सांपर सर्प समेत । काहु नकृपाकरी इतननिमें वियतन वन दौ देत ॥ धन्य कई वर्षा रवि तमचर अरु कमलनको हेतु । युग युग जीवै जर वापुरी मिलै राहु अरु केतु । चितै चंद्र तन सुरति श्यामकी विकलभई ब्रजवालासूरदास अजहूं इहि औसर काहे नमिलत गुपाल॥१६॥दूरिन करहि वीनको धरियो । रथ थाक्यो मानो मृग मोहे नाहिन कहूँ चंद्रको टरियो । जामें बीती सोई जाने कठिन सुप्रेम पाशको परवो।प्राणनाथ संगहुते विछुरे रहत न नैन नीरको झरिवोचिंदन चराचि तनु दहत मलयानिल श्रवण विरहानल जरिवो । सूर सुकौल नैनके विछुरे झूठो सब जतन निको करिवो॥५६॥फेदाणे। विधु वैरी शिरपर वसै निशि दिन परई।हरि सुर भान सुभट विना यहि को वशकरई ।। गगन शिखर उतरै चढे गर्वै जिय धरई । किरनि सकति भुज भीरहने उरते न निकरईउड परिवार पिशुन सभा अपयशहि न डरईसोइ परपंच करे सखी अवला ज्यों वरई। घटै चढे यहि पापते कालिमा न टरई।सूरदुष्ट समुझावही त्यों त्यों जिय खरई॥१७॥ मलार कोऊ वरजोरी या चंद्रहि । अतिही क्रोध करत हम ऊपर कुमुदिनि कुल आनंदहि ॥ कहाकहों वारवि तमचर कमलबलाहक कारे। चलत नचपल रहत थिरक रथ विरहिनिके तनुजारे ॥ नीदत शैल उदधि पन्नग को श्रीपति कमठ कठोरहि । देति अशीश जरा देवीको राहु केतु किनि जोरहि । ज्यों जलहीन मीन तनु तलफति ऐसी गति ब्रजवालहि । सूरदास प्रभु आनि मिलावहु मोहन मदन गुपालहि ॥५८॥ अब हार कौनसों रति जोरी।काके भए कौनके |हैं वधे कौनकी डोरी त्रेता युग इक पत्नी व्रत किए सोऊ विलपति छोरी। शूपनखा वन व्याइन आई नाक निपाति बहोरी ॥ पय पीवत जिन हती पूतना श्रुति मर्यादा फोरी । बहुतै प्रीति वढाइ महरिसों वहुरौ नाचितयो उन ओरी ॥ आरजपंथ छिंडाय गोपिकन अपने स्वारथ भोरी । सूरदास कार काज आफ्नो गुढी डोरि ज्यों तोरी ॥ ५९॥ अव या तनुहि कहो कहा कीजासुनरी सखी झ्याम सुंदर विन बाँटि विषम विष पीज।कि गिरिए गिरि चढि सुनि सजनीकै शीश शंकरहि दीजोकै दहिएदारुण दावानल जाइ यमुन धसि लीजै ।। दुसह वियोग विरह माधोको दिनही दिनही छीजै । सुरश्याम प्रतिम विनु राधे सोचि सोचि जिय जीज॥६०॥ भोपाली ॥ हमहि कहा सखीतनके जतनकी अब या यशहि मनोहर लीजै । सकल त्रास सुख याही वपुलौं छोडि दियते कछू न छीजै ॥ कुसुमित सेज कुसुम सर सरवर हरिके प्राण प्राणपति जीजै । विरह थाह व्रजनाथ सवनदै निधरक सकल -