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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९०

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दशमस्कन्ध-१०


जात पापमें कहत सूर विरहिनि दुखदाई॥५१॥ केदारो यह शशि शीतल काहेते कहियतामीनकेत अंबुज आनंदित ताते ताहित लहियत ॥ विरहिनि अरु कमलनि त्रासत कहुँ अपकारी रथनहिं यत । सूरदास प्रभु मधुवन गौने तो इतनो दुखसहियत ॥५२॥ करधनु लिए चंद्रहि मारिरीतव तोपै कछुवै न सिरहै जव अतिज्वर जैहै तनुजारि ॥ सूहरवाइ जाइ मंदिरचढि शशिसन्मुख दर्पण विस्तारि । ऐसी भांति वुलाइ मुकुर महि आत बल खंड खंड करिडारि ॥ सोई अवधि निकट आईहै चलतही जो दई सुरारािसूरसो विनय करति हिमकरसों अब तू उदोछाँडिदिनचारि॥५३॥ ॥ सारंग ॥ हरको तिलक हरि विनु दहत । वै कहियत उडुराज अमृतमैतजि स्वभाव मोहिं वहनि वहत ॥ कत रथ थकित भयो जु पश्चिम दिशि ग्राह ग्रसित जैसे ग्रहन ग्रहत । छयो न छीन होत सुन सजनी भूमि भवनरिपु कहा वसत ॥ जाको ध्यान धरतिहौं दधिसुत मणिं महशजैसे रहनि रहत । सूरदास प्रभु तुम्हारे मिलन विना प्राणतजति यह नाहिनै सहत॥५४॥ मारू ॥ या विन होव कहा यह सुनो । लेकिन प्रगट कियो प्राचीदिशि विरहिनिको दुखदूनो।सब निरदै सुर असुर शैल सखि सांपर सर्प समेत । काहु नकृपाकरी इतननिमें वियतन वन दौ देत ॥ धन्य कई वर्षा रवि तमचर अरु कमलनको हेतु । युग युग जीवै जर वापुरी मिलै राहु अरु केतु । चितै चंद्र तन सुरति श्यामकी विकलभई ब्रजवालासूरदास अजहूं इहि औसर काहे नमिलत गुपाल॥५४॥ दूरिन करहि वीनको धरियो । रथ थाक्यो मानो मृग मोहे नाहिन कहूँ चंद्रको टरियो । जामें बीती सोई जाने कठिन सुप्रेम पाशको परवो।प्राणनाथ संगहुते विछुरे रहत न नैन नीरको झरिवोचिंदन चराचि तनु दहत मलयानिल श्रवण विरहानल जरिवो । सूर सुकौल नैनके विछुरे झूठो सब जतन निको करिवो॥५६॥केदारो ॥ विधु वैरी शिरपर वसै निशि दिन परई।हरि सुर भान सुभट विना यहि को वशकरई ॥ गगन शिखर उतरै चढे गर्वै जिय धरई । किरनि सकति भुज भीरहने उरते न निकरईउड परिवार पिशुन सभा अपयशहि न डरईसोइ परपंच करे सखी अवला ज्यों वरई । घटै चढे यहि पापते कालिमा न टरई।सूरदुष्ट समुझावही त्यों त्यों जिय खरई॥५७॥ मलार ॥ कोऊ वरजोरी या चंद्रहि । अतिही क्रोध करत हम ऊपर कुमुदिनि कुल आनंदहि ॥ कहाकहों वारवि तमचर कमलबलाहक कारे। चलत नचपल रहत थिरक रथ विरहिनिके तनुजारे ॥ नीदत शैल उदधि पन्नग को श्रीपति कमठ कठोरहि । देति अशीश जरा देवीको राहु केतु किनि जोरहि । ज्यों जलहीन मीन तनु तलफति ऐसी गति ब्रजवालहि । सूरदास प्रभु आनि मिलावहु मोहन मदन गुपालहि ॥५८॥ अब हार कौनसों रति जोरी । काके भए कौनके हैंहे वधे कौनकी डोरी त्रेता युग इक पत्नी व्रत किए सोऊ विलपति छोरी। शूपनखा वन व्याइन आई नाक निपाति बहोरी ॥ पय पीवत जिन हती पूतना श्रुति मर्यादा फोरी । बहुतै प्रीति वढाइ महरिसों वहुरौ नाचितयो उन ओरी ॥ आरजपंथ छिंडाय गोपिकन अपने स्वारथ भोरी । सूरदास कार काज आफ्नो गुढी डोरि ज्यों तोरी ॥ ५९ ॥ अव या तनुहि कहो कहा कीजासुनरी सखी झ्याम सुंदर विन बाँटि विषम विष पीज।कि गिरिए गिरि चढि सुनि सजनीकै शीश शंकरहि दीजोकै दहिएदारुण दावानल जाइ यमुन धसि लीजै ॥ दुसह वियोग विरह माधोको दिनही दिनही छीजै । सुरश्याम प्रतिम विनु राधे सोचि सोचि जिय जीज॥६०॥ भोपाली ॥ हमहि कहा सखीतनके जतनकी अब या यशहि मनोहर लीजै । सकल त्रास सुख याही वपुलौं छोडि दियते कछू न छीजै ॥ कुसुमित सेज कुसुम सर सरवर हरिके प्राण प्राणपति जीजै । विरह थाह व्रजनाथ सवनदै निधरक सकल