वेहाला ॥ अरे मधुप लैपट अनिआई । यह संदेश कत कहैं कन्हाई ॥ नंदभवनमें सदाविराजे नटवर भेष सदा हरि राजै ॥ रासविलास करें वृंदावन । विच गोपी विच कान्ह श्यामवन ॥ अलि आयोहै योग सिखावन । देखिप्रीति लागे शिरनावन ॥ भवरंगीत जो दिन दिन गावै ॥ ब्रह्मानंद परमपद पावै ॥ सूर योगकी कथा वहाई । शुद्ध भक्ति गोपी जन पाई। सांचो मतो जो जिहि विधि धावै । तैसो भाव हरि हिय भार पावै ॥४॥ अथ गोपी वचन धनाश्री ॥ इहां हरि जी बहु क्रीडा फरी । सोतो चितते जात नटरी ॥ इहां पय पीवत वकी संहारी ।शकट तृणावर्त इहां हरि
मारी ॥ वत्सासुरको इहां निपात्यो । वका अवा इहां हरिजी पातोहलधर मारयो धेनुकको इहो । देखोऊधो हत्यो प्रलंब जहां ॥ इहांते ब्रह्मा हमको गयो हरि । और किए हरि लगीन पलक परि ॥ ते सब राखे संपति नरहरि। तब इहां ब्रह्मा आय स्तुतिकरि ॥ इहां हरि काली उर्ग निकास्यो । लगेव जरावन अनल सो नाश्योवस्त्र हमारे हरि जु इहां हरि । कहां लगि कहिए जे कौतुक करि । हरि हलधर इहां भोजन किए । विप्रतियनको अति सुख दिए। इहां गोवर्धन कर हरि धारयो । भेव वारिते हमैं निवारयोशिरद निशामें रास रच्यो इहांसो सुख हमपैवरण्यो जात कहीं। वृषभ
असुर को इहां संहारयो। श्रुम अरु कशी इहां पछारयो॥इहँ हार खेलत आंखि मुचाई। कहां लगि बरनैं हरिलीला गाई। सुनि सुनि ऊधो प्रेम मगन भयो । लोटत घर पर ज्ञान गर्व गयो। निरखत व्रज भूमि अति सुखपावै । सूर प्रभूको पुनि पुनि गावै ॥५॥ धनाश्री॥ ऊधो जो कार कृपा पाउँ धरत हरि तो मैं तुमहिं जनावों । मौन गहे तुम वैठि रहोहो मुरली शब्द सुनावों ॥ अवहिं सिधारे वन
गोचारन हो बैठी यश गावों । निशि आगम श्रीदामाके संग नाचत प्रभुहि देखावों ॥ को जाने दुविधा संकोचमे तुम डर निकट नआ । तब इह द्वंद्व बढे पुनि दारुण सखियन प्राण छोडावै ॥ छिन नरहैं नंदलाल इहां विनु जो कोउ कोटि सिखावै । सूरदास ज्यों मनते मनसा अनत कहूं नहिं धावै ॥६॥ पुनिउववचन ॥ सारंग ॥ मैं व्रजवासिनकी बलिहारी । जिनको संग सदाहै क्रीडत श्री गोवर्द्धन धारी ।किनहूके घर माखन चोरत किनहूँके संगदानी । किनहूंके संग धेनु चरावत हरिकी अकथ कहानी । किनहूँके सँग यमुनाकेतट वंसी टेर सुनावत । सूरदास बलि बलि चरणनकी
इह सुख मोह नित भावत ॥७॥ सारंग ॥ हों इहि मोरनकी बलिहारी । बलिहारी वा वांस वंशकी वंसीसी सुकुमारी । सदा रहतहै करज श्यामके नेकहु होत नन्यारी । बलिहारी वा कुंजजातकी उपजी जगत उजियारी । सदा रहत हृदय मोहनके कबहूं टरत नटारी । बलिहारीकुल शैल सर्व
विधि कहत कालिंदि दुलारी। निशि दिन कान्ह अंग आली गण आपुनहूं भई कारी । बलिहो वृंदावनकें भूमिहि सोतो भागकि सारी। सूरदास प्रभु नांगे पाँयन दिनप्रति गैयाचारी ॥८॥ ॥ अथ गोपी वचन ॥ मारू ॥ अलि तुम जाहु फिरि वहि देश । चीर फारि करिहौं भौहों शिखनि । शिखि लवलेस भाल लोचन चंद्र चमकनि कठिन कंठहि सेस ॥ नाद मुद्रा विभूति भारो करों रावर भेस । वहां जाइ सँदेश कहियो जटा धारै केश । कौन कारण नाथ छाँडी सूर इहै अंदेश ॥ ॥९॥ मलार ॥ हमपर हेतु किए रहिवो । वा ब्रजको व्यवहार सखा तुम हरिसों सब कहियो देखे जात अपनी इन अखिअंन या तनको दहिवो । वरनौ कहा कथा या तनुकी हिरदैकों सहिवो । तव न कियो प्रहार प्राणनिको फिरि फिरि क्यों चहियो । अब नदेह जरिजाइ सूर इन नैननको । वहिवो ॥१०॥ अपने जिय सुरति किए रहिवो । ऊधो हरिसों इहै वीनती समो पाइ कहिवो ॥ घोप वसतकी चूक हमारी कछू न चित गहिवो । परमदीन यदुनाथ जानिक गुण विचारि ॥
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सूरसागर।
