पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८५

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(३२) सुरसागर--सारावली। वोलत नन्दकुमार । तुम विन पल छिन कल न परत है भोजन सुख व्यवहार ॥९२१ ॥ नवः निकुंज में मिलो श्यामसों भेंटो भरि अंकवार । कुसुमसेजपर करो केलि प्रिय गिरिधर. परम. उदार ॥ ९२२ ॥ तोविन पियहि कछू नहिं भावे तोसों पिय आधीन । तोविन श्याम रहत हैं ऐसे जैसे जल विन मीन ॥ ९२३ ॥ कहा सुभाव परयो सखि तेरो यह विनवतहौं तोह । मान करत गिरिवरधर पयसों मानत नाहिंन मोह ॥ ९२४ ॥ करि शृंगार सकल व्रज सुंदरि नीलांवर तनुसाज । रैन अंधेरी कछू न दीखत नूपुर ध्वनि जिन वाज ॥ ९२५ ॥ कुवलय दल कुसुमन, शय्या रचि पंथ निहारत तोर । सपन जाग अरु शयन सुमृत तुव वचन सत्यहे मोर ॥ ९२६॥ सित अरु पीत यूथिका वेनी गूंथो विविध वनाय । रचो भाल निज तिलक मनोहर अंजन नयन सोहाय ॥ ९२७ ॥ तू छवि सिंधु विहर व्रजनायक क्षुद्र नदी नाहि भावे । जवते नाम सुन्यों श्रवणन तुव रैनि नींद नहिं आवै॥९२८॥हरि राधा राधा रटत जपत मंत्र दुरदाम । विरह विराग महायोगी ज्यों बीतत हैं सब याम ॥ ९२९ ॥ कबहुँक किशलय सेज सँवारत तेरेही हित लाल। कवहुँक अपने हाथ सँवारत गूंथत कुसुमन माल ॥ १३०॥ तुव विनवट संकेत सदन वन देखत: लगत उदास । विरह अग्नि चहुँ दिशिमें धावत फूले दिखत पलास ॥ ९३१ ॥ सारस हंस मोर पारावत बोलत अमृतवान । वैठरहे दुरसदन सघन वन ध्वनि नहिं सुनियत कान ॥ ९३२ ।।. कालिन्दी तट विमल कदमतर करत वदन तुव ध्यान । सुहृदय सखा त्यागि मनमोहन करत मधुर तुव गान ॥ ९३३ ॥ गुंजत श्रवणन मधुप सुनत हैं तुव श्रुति की सुधि आवै । कंचन बरन जात तेरो वपु पीताम्बर पहिरावै ॥ ९३४ ॥ सुनत कोकिला शब्द मधुरध्वनि कमल नयन अकुलात । तेरे बोल करत सुधि जिय में विरह मगन बै जात ॥ ९३५॥ तुव नासापुट गात मुक्त फल अधर बिंब उनमान । गुंजाफल सबके शिर धारत प्रकटी मीन प्रमान ॥ ९३६ ॥ सिंधुः। सुत्तासुत तारिपु गमनी सुन मेरी तू बात । कामपिता वाहन भखको तनु क्यों न धरत निजगात।। ॥९३७॥ अलि बाहन पति वाहन रियुकी तपतवढ़ी तनुभारी। शैल. सुतासुत तासुत अँगना सोतसबै विसारी ।। ९३८॥ भंग यूथ चतुरानन तनया ब्रह्मनादं सुरसंग । जलसुत वाहनसो जन : धारत विषम लगत विप.अंग ।।.९३९॥ चतुराननसुत तासुत वा सुत उदित होन अव आयो । मन्मय मात तात सुत अथयो सो तो वृथागवायो॥९४०॥ पंकज उर पंकजजिन करे तेरो अटल सुहाग । सुरपति वाहन तासुत शिरपर मांग भरो अनुराग ॥९४७ ॥ कमल. पुत्र तासुत कर राजत सोहरि निज कर लीन्हें । सप्त स्वरन उपजाय वजावत रटन राधिका लीन्हें ॥ ९४२ ॥ सुत .. प्रहाद तासु सुत तापित भ्राता वृथा गँवायो । संज्ञा सुत वपु. सदृश वसन तन सोतन लागतः । छायो ॥९४३॥ सारंग ऊपर सारंग राजत सारंग शन्द सुनावै। सारंग देख सुने मृगनैनी सरिंग: सुख दरशावै॥९४४ ॥ सारंग रिपु की वदन ओटदै कह बैठी है मौन । ब्रह्म सुता सारंगके, धोखे करत सकलवज गौन ॥ ९४५ ॥ सारंगसुता देखि सारंग को तेरो अटल. सुहाग । सारंग पति तापति ता बाहन करित रंट अनुराग ॥ ९४६ ॥ दधिसुत. वाहन सुभग. नासिका दधि सुत वाहन देख्यो । दधिसुत बाहन वचन सुनन तुव अंग अंग अंवरेख्यो ॥ ९४७. ॥ शशि को. भ्रात कहत ता.वाहन कुन्द कुसुम ललचातं । खजन. सदृश देख तुवः अखियां तन मनमें अकु:- लात ॥ ९४८॥ मारुत सुरपति रिपुता पतनी ता सुत वाहन वात । श्रवण सुनत अकुलात । सांवरो कछुक कही नहिंजात ॥९४९ ॥ चतुरानन सुत ता सुतं पत्नी ता सुतको जो दास !