सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सेवासदन
१३९
 


लज्जा से उसकी आँखे जमीन में गड़ गई। नाश्ता कर के जल्दी से बाहर निकल आया और सोचने लगा, यह कंगन इन्हे कैसे मिल गया।

क्या यह सम्भव है कि सुमन ने उसे यहाँ भेज दिया हो? वह क्या जानती है कि कंगन किसका है? मैंने तो उसे अपना पता भी नहीं बताया। यह हो सकता है कि यह उसी नमूने का दूसरा कंगन हो, लेकिन इतनी जल्द वह तैयार नहीं हो सकता। सुमन ने अवश्य ही मेरा पता लगा लिया है और चाची के पास यह कंगन भेज दिया है।

सदन ने बहुत विचार किया। किन्तु हर प्रकार से वह इसी परिणाम पर पहुँचता था। उसने फिर सोचा, अच्छा मान लिया जाय कि उसे मेरा पता मालूम हो गया तो क्या उसे यह उचित था कि वह मेरी दी हुई चीज को यहाँ भेज देती? यह तो एक प्रकार का विश्वासघात है।

अगर सुमन ने मेरा पता लगा लिया है तब तो वह मुझे मन मेंं धूर्त, पाखंडी, जालिया समझती होगी! कंगन को चाची के पास भेजकर उसने यह भी साबित कर दिया कि वह मुझे चोर भी समझती है।

आज सन्ध्या समय सदन को सुमन के पास जाने का साहस न हुआ। चोर दगाबाज बनकर उसके पास कैसे जाय? उसका चित्त खिन्न था। घरपर बैठना बुरा मालूम होता था। उसने यह सब सहा, पर सुमन के पास न जा सका।

इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। सुमन से मिलने की उत्कंठा नित्य प्रबल होती जाती थी और शंकाए इस उत्कंठा के नीचे दबती जाती थी। सन्ध्या समय उसकी दशा उन्मत्तों की सी हो जाती। जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बाते करने को जी नही चाहता, उठना बैठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बैठता है वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी।

अन्त को वह अधीर हो गया। आठवें दिन उसने घोड़ा कसाया और सुमन से मिलने चला। उसने निश्चय कर लिया था कि आज चलकर उससे अपना सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगा। जिससे प्रेम हो गया,